विषाक्त समाज की ओर बढ़ता भविष्य

 विषाक्त समाज की ओर बढ़ता भविष्य .....!!                      ••••••••••••••••••••••••••••••

हम सभी चाहते हैं कि जिस समाज में हम जीवन जी रहे उसमें आस पास खुशियां हो , उल्लास हो जीने की जिजीविषा हो और आगे बढ़ने के अवसर हो...यही एक आम इंसान के मन की चाहत होती है। इसके लिए वह अथक प्रयास करता है। व्यक्तिगत और व्यावसायिक तौर पर वह अपना और अपने परिवार का भरपूर ख्याल रखने के लिए स्थितियां बनाता है। यही स्थितियां उस मार्किट का निर्माण करती हैं जो हमारे आस पास जरूरत का बाजार बनाती हैं। मार्किट मतलब खर्च , और खर्च मतलब कमाई और कमाई मतलब एक अच्छी कमाई के लिए स्वस्थ समाज। क्योंकि डिप्रेशन में रहकर तो कोई भी कुछ अच्छा और बेहतर काम नहीं कर सकता। ये एक साईकल हैं जो जीवन को काम और समाज से जोड़ती है। हमारे आस पास प्रचार, सिनेमा और प्रसार से सम्बंधित जो भी साधन हैं उनसे ये उम्मीद की जानी चाहिए कि वह अपने उत्पाद को समाज में स्थान दिलाने के लिए पहले उसका समाज में दर्जा और उपस्थिती का प्रभाव निश्चित करें। जैसे कि शराब और धूम्रपान आदि...एक गलत छवि के साथ बिकते ये उत्पाद लोग अपनी रिस्क पर खरीदते हैं। जानते बुझते समझते कि ये नुकसानदायक है। लेकिन जो उत्पाद अच्छा होने का ढोंग करके लोगों को खोखला बनाएं उनके प्रति सचेत होना जरूरी है।

अब तक कि प्रस्तुत ये सारी भूमिका एक फ़िल्म के संदर्भ में है।वह फ़िल्म है "एनिमल" .......हद दर्जे की घटिया फ़िल्म को समाज का आईना कह कर प्रस्तुत करना सर्वथा गलत है। हम में से कोई ऐसा समाज नहीं चाहता है। जिसमें पति वहशी की तरह पेश आता हो और पत्नी को जान से मारने पर उतारू हो जाये। एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर करे , अपनी जिद में स्त्री से जूते चटवाये आदि आदि। ये घृणित है। लेकिन लोग इस फ़िल्म को देख रहे। 

अब ये देखना चाहिए कि जो लोग ये फ़िल्म को देख रहे वो किस मानसिकता को सपोर्ट करते हैं। शायद यही...क्योंकि अगर हम इस विचारधारा के खिलाफ हैं तो हम उसकी ओर जाएंगे ही क्यों... स्त्री को उपभोग और घृणा की वस्तु समझने वाले एक वहशी पुरुष को महिमामंडित करके समाज में किस तरह का आदर्श प्रस्तुत किया जा रहा। 

बचपन से ना जाने क्यों मन में एक ऐसे समाज की कल्पना लेकर मैं बड़ी हुई कि आस पास सब कुछ मधुर होगा। लोग प्रेम से रहेंगे। सुकूंन और शांति का माहौल रहेगा। पर अब जो देखती हूँ। राजनीति घृणित हो गई। समाज में गंदगी अंदर तक पैठ गई। रिश्ते कटु हो गए और अपनापन और त्याग तो लगभग खत्म ही हो गया। ।  बस दुःख यही होता है कि इस तरह के द्वेष वाले समाज में हम दिखावे की जिंदगी जी रहे। जहां कोई किसी की उपस्थिति को सहर्ष स्वीकार नहीं करता। बस मैं होने का दम्भ उसके आस पास का सारा माहौल कड़वा कर रहा....!!

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