#निजीकरण vs सरकारी

 निजीकरण 🆚 सरकारी ...❗

•••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••

जो लोग आज निजीकरण का सिर्फ़ इसलिए समर्थन कर रहे कि ये उनकी पसन्दीदा सरकार या व्यक्तिविशेष के द्वारा चुना गया है तो उनके लिए साक्षात घटना का विवरण प्रस्तुत करना चाहूंगी ....

    मेरी बच्ची एक नामी गिरामी निजी संस्थान से पढ़ाई कर रही । उससे मिलने जाना होता तो एक दिन उसे लेकर कुछ खरीदारी वास्ते साथ लेकर बाहर गए। कुछ दूरी जाने पर देखा कि एक बहुत बड़े नाले के किनारे कुछ टपरियाँ डालकर या टोकरे में बर्तन रखकर कुछ खाने का सामान बेचने वाले हैं और वहां young लड़के लड़कियों की भीड़ लगी है। कोई रोटी सब्ज़ी , कोई दाल बाटी , कोई कढ़ी चावल जैसी चीजें ख़रीद कर खा रहे हैं। 

           पहले तो ये देख कर ही बेहद दुख हुआ कि जिन बच्चों को हम घर पर बासी खाना भी देना नहीं पसन्द करते वो यहां नाले की गंदगी के पास पेट भर रहे। वो भी बेहद सस्ता और घटिया स्तर के भोजन से। फ़िर ना जाने क्यों मन किया कि उनसे बात करें और पूछें कि यहां क्यों......? ?

कुछ बच्चों से बात की तो उन्होंने बताया कि वो प्राइवेट संस्थानों में नौकरी करते हैं 20-25-30 या बहुत ज्यादा 50 तक तनख़्वाह पर काम करते हैं। बड़े शहर में घर किराये , घरेलू खर्चों और आने जाने के खर्च में ही तनख़्वाह का तीसरा हिस्सा निकल जाता है। और बचता कुछ नहीं .....महीने के अंत तक आते आते आख़िरी एक हफ्ता भूखे पेट जरूरतों को मार कर निकालना पड़ता है। तब ऐसी जगहों पर जहां 20 या 25₹ में थोड़ा बहुत पेट भरने को मिल जाये तो काम निकालना पड़ता है।

ये जान कर बहुत दुःख हुआ। पर यही सच्चाई है। सरकारी और निजी के अंतर की। निजी कंपनियों में अमूमन दस्तख़त 50 पर कराकर 25 या 30 पकड़ा देते है। बच्चे  या तो सीखने के तौर पर या मजबूरी में कर रहे हैं। कुछ एकाध अपवाद छोड़ दें जो निजी कंपनियों में बहुत ऊँचें पदों पर आसीन हैं । नहीं तो एक बड़ा तबका इसी तरह काम कर रहा है। आज हम जिस व्यवस्था को समर्थन दे रहे उसमें कल हमारे बच्चे भी ऐसे ही किसी दूसरे शहर में कहीं गन्दी जगह रह रहे होंगे खा रहे होंगे या जिंदगी काट रहे होंगे। आज हमें ये सोच कर सही गलत का चुनाव करना चाहिए कि ये हमारे बच्चों के लिए कैसा है....चलिये ये भी मान लिया जाए कि सरकारी नौकरियों में कुछ प्रतिशत कामचोरी होती है पर नौकरी तो पक्की होती है। बच्चे का भविष्य तो एक स्थिर जगह निश्चित होता है। और फ़िर बच्चों को बैल की तरह कोल्हू में पीस कर एक टारगेट के पीछे 25 -30 हज़ार दिलवाना हमारा लक्ष्य है या फिर सरकारी में एक निश्चित तनख़्वाह पर सुकून की नौकरी करवाने में बेहतरी है। सोचिए अभी भी समय है और ज़रूर सोचिए क्योंकि शायद हम और आप आधी जिंदगी जी चुके है। पर हमारे बच्चे अभी शुरुआत कर रहे हैं। 

Comments