विचारों का क्या है .....!!

 विचारों का क्या है...!!

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दिन भर हम अपने रोजमर्रा के कामो में व्यस्त रहते है। शरीर काम पर लगा रहता है पर दिमाग़ उन तमाम कामों पर से हट कर भी बहुत सी बातें या चीजों के बारे में सोचता रहता है। इस तरह देखें तो हमारा दिमाग़ दोहरी भूमिका में काम करता है। क्योंकि हाल फिलहाल जो काम हम कर रहे उसके सही होने के लिए भी तो दिमाग़ की उपस्थिति जरूरी है । ये अज़ीब सी स्थिति होती है। लेकिन हम इस काबिल है कि अपने दिमाग़ को बहुआयामी तरीके से उपयोग कर सकते हैं। उदाहरण के लिए देखिए कि जो ड्राइविंग में सिद्धहस्त हो जाते हैं। वह फ़ोन पर बात करते हुए भी ड्राइव कर लेते है। जबकि गाड़ी चलाते हुए भी ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है और साथ ही जिससे बात की जा रही उसको भी जवाब दिए जाने के लिए सोच आवश्यक है। ये दिमाग़ की हुनरमंदी ही तो है।                                                                  लेकिन क्या ये सोचा गया कभी कि विचार किस क़दर हमें उलझा कर हमारे धैर्य को हर पल परखते हैं ? ? आखिर  क्यों हम इतना सोचते हैं ? ? क्यों हम अपने आस पास की हर आवाज़ , हर स्थिति और हर चीज़ में एक सोच ढूंढ लेते है ? ? क्या दिन का कोई एक ऐसा क्षण होता है जब हमारी सोच  हमसे अलग होती है ? ? क्या पूजा करते समय भी हम पूरी तरह पूजा में रम पाते हैं ? ? कहीं दूर बजती किसी गाड़ी के हॉर्न की आवाज़ भी हमें उस दौरान कैसे सुनाई पड़ जाती है जबकि हम तो भगवान को सोच रहे होते हैं .... ? ?                                                             ये कुछ सवाल है और इनका जवाब ढूंढना ही इस लेख का उद्देश्य है। सही बात है विचारों का क्या है उन्हें हम शह देते हैं। तब वो हम पर हावी होते हैं। इसके लिए एक बहुत अच्छा सरल सा उपाय है जो आत्मकेंद्रित होने की शक्ति को बढ़ाता है। मैनें आज़माया , और कुछ हद तक सफल भी हो रही हूँ।                                                     कहीं  शांत हो बैठें फ़िर अपनी भौहों के बीच जहां बिंदी लगाते हैं। वहां ध्यान केंद्रित करें। कुछ देर में महसूस होगा कि पूरे शरीर का रक्त उसी स्थान पर इकट्ठा हो रहा। बस इसी तरह अपने ध्यान का समय बढ़ाया जाए । यह टेस्टेड उपाय है और सच में काम करता है। अभ्यास करते रहने से आस पास की आवाज़ें भी धीरे धीरे मध्यम होने लगती है। शुरुआत कुछ सेकण्ड्स या मिनट्स से की जा सकती है। पर तब तक करना चाहिए जब तक कि रक्त संचार में फ़र्क़ ना महसूस होने लगे।                                                                         ये मैनें आज़माया, आप भी करें । विचारों की बहती नदी थमेगी। कुछ पल दिमाग़ को ठंडक मिलेगी। क्योंकि विचारों का क्या है ...उन्हें तो आते जाते रहना है और हमें व्यथित करना है......!!

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