मनुस्मृति : प्रथम अध्याय - भाग 3

मनुस्मृति : प्रथम अध्याय -भाग 3  •••••••••••••••••••••••••••••• 

ब्रह्माजी ने सृष्टि रचना की इच्छा से प्रेरित मन और प्रकृति को बनाया है, जिसके फलस्वरूप आकाश उत्पन्न होता है। आकाश का गुण (परिचय-चिह्न) शब्द है। प्राणियों द्वारा उच्चरित प्रत्येक शब्द जिस शून्य में विलीन होता है, उसी का नाम आकाश है। आकाश में सभी प्रकार की अच्छी तथा बुरी गन्ध को ले कर चलने वाली परम पवित्र एवं बलवान् वायु होती है। इसका परिचय स्पर्श से मिलता है। अतः इसका गुण स्पर्श माना गया है। वायु की गति जहां सर्वत्र है, वहां वह अतितीव्र भी है। इसीलिए उसे ‘बलवान्’ कहा गया है। वायु सुगन्ध और दुर्गन्ध का वहन अवश्य करता है, परन्तु उससे दूषित कभी नहीं होता। अतः उसे पवित्र कहा गया है।                                                                     वायु सेे अंधकार नाशक प्रकाश, द्युति (चमक) और ऊष्मायुक्त अग्नि उत्पन्न होती है, जिसे नेत्रों द्वारा देखकर उसकी सत्ता का ज्ञान किया जाता है। अतः इसका परिचय-चिह्न रूप है। अग्नि में विकार आने से जल उत्पन्न होता है, जिसका गुण रस (स्वाद) है। इस जल में विकार आने पर पृथ्वी उत्पन्न होती है। पृथ्वी का गुण गन्ध है।                            यही सृष्टि की उत्पत्ति का आदि क्रम है मन→आकाश→वायु→अग्नि→जल→पृथ्वी वेदों में निर्दिष्ट मनुष्यों की आयु और उनके कर्मों के फल तथा उनकी सामर्थ्य (प्रभाव) युग के अनुकूल ही प्रवर्तित होते हैं। सतयुग ,द्वापर , त्रेता और कलि ये चार युग हैं।                                                                                     इस सृष्टि के सभी कार्यों के सम्यक् सञ्चालन के रूप में उसकी सुव्यवस्था करने के लिए उस परम तेजस्वी परमात्मदेव ने शरीर के चार अंगों—मुख, बाहु, ऊरु तथा चरण के समान , सृष्टि के सभी लोगों को चार—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र—वर्णों में बांटा तथा उनके कर्तव्य-कर्मों का निर्धारण किया। उस परमपिता परमात्मा ने वेदों का पठन-पाठन, यज्ञों का करना-कराना तथा दान देना और लेना—ये छह कर्म ब्राह्मण के लिए निर्धारित किये हैं। ब्रम्हा जी ने क्षत्रियों के लिए आचरणीय धर्म के रूप इस प्रकार से निर्धारित किये हैं—प्रजा की रक्षा करना, ब्राह्मणों तथा दीन-दुखियों को दान करना, यज्ञानुष्ठान में प्रवृत्त होना, सद्‌ग्रन्थों का अध्ययन करना ।  पशु-पालन, कृषि, व्यापार, साहूकारी, ब्याज पर ऋण देकर धन कमाना के अतिरिक्त दान देना, यज्ञ करना तथा ग्रंथो     का अध्ययन करना—वैश्य के लिए निर्धारित कर्तव्य-कर्म हैं। भगवान् ने शूद्र वर्ण के लोगों के लिए एक ही कर्तव्य-कर्म निर्धारित किया है। वह है निर्द्वन्द्व तथा निर्विकार (ईर्ष्या तथा द्वेष भाव से सर्वथा मुक्त होकर) भाव से तीनों—ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य—वर्णों के लोगों की सेवा करना। इस प्रकार मनुस्मृति धर्मग्रन्थ संसार का सर्वोत्तम ग्रन्थ है। यह कल्याणकारी, बुद्धि बढ़ाने वाला, संसार में यशस्वी और दीर्घायु बनाने वाला तथा मोक्ष-प्राप्ति में सहायक बनने वाला है।                                  •••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••••

प्रथम अध्याय समाप्त हुआ। अगले अध्यायों में मनुष्य के विस्तार की वृस्तृत विवेचना के साथ उसका धर्म से सम्बन्द्ध परिभाषित किया जाएगा। 





   






 

Comments