बाजारवाद से मशीनी बनता मानव
बाजारवाद से मशीनी बनता मानव :
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कभी सोचा है कि हम सब जितने के लिए भाग रहे हैं , बाज़ार में ..दुकान में ...मॉल में जितनी भी चीजे हैं उनमें से ज़्यादातर की हमे ज़रूरत ही नही है । जितने भी विज्ञान के आविष्कार हो कर नए गैजेट बन रहे हैं , क्या उनके बिना जिंदगी का चलना सुलभ नहीं...?? 99% वो सब फज़ूल हैं किसी काम के नही और किसी ज़रूरत के नहीं । कभी घर की तमाम चीजों का आंकलन करके देखिए कि उन सब चीजों में ऐसी क्या है जिससे आपका जीवन न चले....!!
हमे खुद नही पता होता कि हमे किस चीज की ज़रूरत है । बाज़ार , दुकान , विज्ञापन हमे बताता है कि ये भी तुम्हारी ज़रूरत है । ये कोई और तय करता है कि हम क्या चाहिए , और क्या ज़रूरत होनी चाहिए हमारी । हमारे आस पास विज्ञान का ऐसा कौन सा आविष्कार है जिसके बिना जीवन चलना असम्भव सा हो जाएगा !!
पहले घरों में लैंडलाइन फोन हुआ करते थे।संपर्क का वह साधन भी अच्छा था।अब हाथ में मोबाइल थमा कर कौन सी बड़ी क्रांति ला दी गई। उल्टा ये आपराधिक कृत्यों का सहारा बन गए और व्यक्ति की निजता भी खत्म हो गई।
आज से 30 साल पहले अगर झांका जाए तो हमारी क्या ज़रूरत थी ? बस इतना कि खाने को पर्याप्त हो , पहनने को हो , और हारी-बीमारी में दवा अस्पताल की व्यवस्था हो जाए । बस इतना में ही हमारा काम बढियाँ चल रहा था । आज भी गावँ देहात की जिंदगी शहरों की चमक दमक से बहुत अच्छी है क्योंकि अभी वहां ये विज्ञान का असर कम पसरा है और जरूरत का सभी कुछ उपलब्ध है। कोठी में अनाज है , बाड़ी में सब्जी है, बाप दादा का बनाया सिर ढंकने का घर है , जमीन में पानी है । जीने के लिए मूलभूत यही तो चाहिए....और क्या । जो कमाई गावँ में राजा सा महसूस कराती है वही शहरों के बाजार में दो कौड़ी की हो जाती है।
सुराहियां मटके RO में बदल गए। बची रोटी जो गाय कुत्ते का पेट भर देती वह अब फ्रिज के हवाले कर के अगले दिन बासी खाई जाती हैं। कभी ये सोचा कि हम बाजारू सामानों को खपाने की मशीन बन गए हैं। किसी दूसरे के व्यापारिक सपने , किसी दूसरे की महत्वकांक्षा , किसी दूसरे के पागलपन में हम होम हुए जा रहे हैं । हम सब नीम बेहोशी में सब एक दूसरे को खींच रहें है एक अनजान सी दिशा में .....जड़ो से दूर । जिसका कोई गंतव्य नही । कोई उलजुलूल कोई भी सामान बना रहा है और हम उसे खरीदने के लिए और मेहनत करते हैं । जीवन मे सिर्फ एक ही सत्य रह गया है , सामान का बनना और हमे उसे खरीदना । सारा मायाजाल उसी के इर्दगिर्द बना हुआ है । और ये सब हो रहा है आपकी ज़िंदगी की कीमत पर , आपके सुकूंन और आपकी आज़ादी की कीमत पर ।
स्कूल में हम पढ़ते थे कि विज्ञान -वरदान या अभिशाप ? आज यह शत प्रतिशत माना जा सकता है कि अभिशाप है । विज्ञान धर्म से बड़ा जाहिल है । हम हर पल मुट्ठी भर सिरफिरे व्यज्ञानिक , व्यापारी , पूंजीपति, सत्तालोभी के महत्वकांक्षाओं के ज्वाला को धधकाते रहने के लिए हवन वेदी में झोंके जा रहे हैं । हम मानव से मशीन बनते जा रहे हैं । आप जितना भी मेहनत कर रहे हैं , जितना भी कमा रहै हैं वो आपके खुद के लिए या आपके बच्चों के लिए नहॉ है ,,,,उसमे 99 % बाजार के लिए है । आप बाजार के लिए कमा रहे हैं । आप बाजारवाद के सबसे निचले पुर्जे हैं । बस इतनी ही हैसियत और उपयोगिता है । ये स्थिति हमनें खुद पैदा की है। निर्भरता और इच्छाओं के वशीभूत होकर। चेतिये ....क्योंकि मशीन होकर जीने का अंत बुरा है। इंसान रहे तो भावनाओं के संग जिएंगे।
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