कथा -व्यथा ………!

मैं एक औरत हूँ ,
एक अनकही दर्द की बेज़ुबान दास्ताँ।
रोज अपने ही आईने को ये झुठलाते हुए ,
कि कही भी कुछ भी नहीं बदला। 
मैं वैसी ही, मेरा परिवेश वैसा ही,
मेरे आस पास का देश वैसा ही। 
मेरे वजूद का इतिहास ही मेरा वर्तमान। 
मेरे अंदर का इंसान आज भी उसी तरह ,
उछल उछल कर कुलांचे भरता है। 
जिसमें मेरे जन्म का सार छिपा है। 
सब कुछ पहले से ही तय है। 
एक कोरे कागज़ पर रेखाओं से ,
एक खाका बना सब कुछ निर्धारित कर , 
एक नए जीवन का लुभावना आमंत्रण 
हर बार मुझे धोखे की उसी राह पर ले आता है। 
जहाँ हर कोई अपना सा लग कर ,
गहरे घाव सा टीस बन कर रह जाता है। 
पर हाय रे मन की दुर्बलता की मारी 
मैं निरीह औरत बेचारी ,
सांता की तरह माफ़ी की सौगात लुटाती ,
जीवन को सच समझ जीए जा रही। 
धोखे और ताड़ना का हलाहल 
जान बुझ कर दूसरों को खुश रखने के लिए 
भोले शंकर की तरह पिए जा रही। 



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