व्यस्क होती बच्चियों के लिए विद्यालयों में सुविधाओं की उपलब्द्धता की आवश्यकता
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बच्चा जब से स्कूल जाना प्रारम्भ करता है। तब से वह दिन का आधा समय अपने स्कूल में ही गुजारता है । माताएं उनको घर से टिफ़िन भी बना कर इसीलिए देती हैं कि इतने लम्बे समय तक उनके बच्चे को भूखा ना रहना पड़े। बच्चा दोस्तों के साथ पढता , खाता और खेलता है। उसे स्कूल में सबके बीच गुजारा समय अच्छा लगता है। स्कूल में सभी बच्चे - बच्चियां मिलजुल कर रहना सीखते हैं। यूँ तो स्कूलों में सभी बच्चों के लिए तमाम जरूरी सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जाती है। जैसे शौचालय , खेल के मैदान , खाने के लिए कैंटीन , पीने के पानी की व्यवस्था , और बीमार बच्चों के लिए रोगी कक्ष। परन्तु इनमें से कुछेक सुविधाएँ सामान्यतः प्राइवेट स्कूलों में ही रहती हैं। सरकारी स्कूल इस की ओर ध्यान ही नहीं देते। इस का एक बड़ा कारण सरकार की ओर से उनको फण्ड का न मिलना भी है। पर्याप्त पैसा न होने की वजह से वह अपने स्कूल में छात्र छात्राओं को इन में से बहुत सी प्राथमिक और आवश्यक सुविधाएँ नहीं देते। जबकि स्कूल आने वाले हर छात्र - छात्रा का ये अधिकार है कि वह अपनी सभी आवश्यक आवश्यकताएं स्कूल में रहकर पाएं। प्राइवेट स्कूल तो मनचाही फीस लेकर भी बहुत सी जरूरी सुविधाओं की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं देते। जबकि यह सभी मानते हैं कि घर के बाद स्कूल ही बच्चे का दूसरा ठिकाना होता है। बच्चे के स्कूल में गुजारे समय के दौरान उसको कई तरह की मानसिक , शारीरिक और मनोव्याज्ञानिक अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। जिसमें स्कूल और स्कूल प्रशासन का सहयोग बहुत जरूरी होता है।
इन सब में सबसे ज्यादा जरूरी जो आवश्यकता है वह वयस्क होती बच्चियों की है। उनकी आवश्यकता के लिए स्कूलों को सबसे पहले कदम उठाने चाहिए । चाहे वह स्कूल सरकारी हो या प्राइवेट। बच्चियों की यह आवश्यकता उनके जीवन से जुडी है। जिसे हम दूसरे शब्दों में मेडिकल आवश्यकता भी कह सकते है। बच्चियां उम्र में लगातार बढ़ते हुए रोज विद्यालय जाती हैं। उम्र के अनुसार उनके शरीर में जरूरी बदलाव भी आते रहते हैं। इसमें सबसे जरूरी वह स्थिति होती है जब बच्ची स्कूल समय में रहते हुए माहवारी से हो जाए। ज्यादातर बच्चियां इस परिस्थति से अनजान रहती हैं। उन्हें ठीक से पता भी नहीं होता कि ऐसे में उन्हें क्या और कैसे करना है। यदि घर में उन्हें इस स्थति के बारे में ठीक से न समझाया गया हो तो बच्चियां और भी घबरा जाती हैं। हालाँकि यह एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। जिसे हर बच्ची को गुजर कर औरत बनने की ओर कदम बढ़ाने पड़ते हैं। पर इस प्रक्रिया में उन्हें बड़ों के सहयोग की जरूरत पड़ती है। जो उन्हें इस नयी नयी परिस्थति में संभलना सीखा सकें। इस में घर और स्कूल दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
अब इसमें स्कूल की भूमिका की चर्चा करनी आवश्यक है जिसमें उनके सहयोग के मुख्य बिंदुओं पर ध्यान दिया जाना जरूरी है।
पहला : विद्यालओं में एक भली प्रकार से संचालित रोगी कक्ष की व्यवस्था होनी चाहिए। जिसमें एक महिला कर्मचारी नियुक्त होनी चाहिए। जो थोड़ा बहुत प्राथमिक चिकित्सा के बारे में जानती समझती हो।
दूसरा : रोगी कक्ष में वयस्क होती बच्चियों के नाप के स्कूल यूनिफार्म आवश्यक रूप से रखे जाने चाहिए। जिससे यदि उनके साथ ये घटना स्कूल में घट जाए और उनके वस्त्र ख़राब हो जाएँ तो वह वस्त्र बदल कर घर जा सकें और उन्हें स्कूल से लौटते समय शर्मिंदगी का सामना न करना पड़े।
तीसरा : स्कूल के रोगी कक्ष में उनके लिए सेनेटरी नैपकिन या पैड्स की व्यवस्था बिना कोई मूल्य चुकाए दी जानी चाहिए। यह उन बच्चियों की प्राथमिक आवश्यकता और अधिकार है जिसके लिए चाहे तो स्कूूल फीस में कुछ अतिरिक्त राशि जोड़ कर ली जा सकती है पर खासतौर पर उस समय जब वह बच्ची उस परिस्थति से स्वयं परेशान है। उसे बिना किसी मांग के यह सहायता दिलवाई जानी चाहिए।
चौथा : ऐसी बच्चियों और अध्यापिकाओं को यह निर्देश दिया जाना चाहिए कि वह कक्षा में बिना हिचकिचाए अपनी परेशानी बता कर रोगी कक्ष या शौचालय जाने की मांग कर सकती हैं। चाहे वह बीच परीक्षा में भी बैठी हों।
पांचवा : ऐसी बच्चियों को हो सके तो किसी मदद के साथ घर पहुंचा देना चाहिए। क्योंकि अप्रत्याशित परिस्थति में बच्ची घबरा सकती है। घर पर माँ इस स्थति को अच्छे से संभल कर बच्ची को शांत कर सकती है।
सामान्यतः देखने में यही आता है कि विद्यालयों में इस बाबत कोई भी समुचित व्यवस्था नहीं की गयी होती है । इसलिए वह बच्चियां जो माहवारी या तो पहली बार हो रही हैं या फिर जो अपनी निश्चित तिथि से पहले अचानक हो गयीं हो , घबरा जाती है। ऐसे में उन्हें स्कूल के साथ और सहारे की जरूरत होती है। ऐसे में एक स्थिति की बात करना और भी आवश्यक है कि यदि स्कूल सिर्फ बच्चियों का है तब तो स्थति को सँभालने में उतनी तकलीफ नहीं होगी। परन्तु यदि स्कूल छात्र छात्राओं के सामूहिक अध्ययन का हो तो ऐसे में बच्ची की ओर स्कूल की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। क्योंकि वयस्क होते छात्र बच्चों के सामने इस स्थति को सामने न लाते हुए उस बच्ची की मदद करनी पड़ती है। छात्र बच्चे भी इस स्थिति से अनजान होते हैं और उनकी उत्सुकता उस पीड़ित बच्चीं की परेशानी को और बढ़ा सकती है। ऐसे में तुरंत मदद दी जानी चाहिए। स्थिति को सबके सामने न लाने के लिए एक बेहतर तरीका यह भी है कि उस समय एक साथ दो तीन बच्चियों को किसी कार्य के बहाने कक्षा से बाहर बुलाया जाना चाहिए। जिससे उस बच्ची को अलहदा न महसूस हो और कुछ बच्चियों के बीच में घिर कर वह रोगी कक्ष तक आसानी से पहुँच जाए। अमुक बच्ची को मदद के लिए रोक कर बाकि बच्चियों को फिर से कक्षा में भेज दिया जाए । यह कुछ सामान्य लेकिन महत्वपूर्ण उपाय हैं जिनसे पहली बार उस बच्ची के साथ हो रही स्थिति को संभाला जा सकता है।
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बच्चा जब से स्कूल जाना प्रारम्भ करता है। तब से वह दिन का आधा समय अपने स्कूल में ही गुजारता है । माताएं उनको घर से टिफ़िन भी बना कर इसीलिए देती हैं कि इतने लम्बे समय तक उनके बच्चे को भूखा ना रहना पड़े। बच्चा दोस्तों के साथ पढता , खाता और खेलता है। उसे स्कूल में सबके बीच गुजारा समय अच्छा लगता है। स्कूल में सभी बच्चे - बच्चियां मिलजुल कर रहना सीखते हैं। यूँ तो स्कूलों में सभी बच्चों के लिए तमाम जरूरी सुविधाएँ उपलब्ध करवाई जाती है। जैसे शौचालय , खेल के मैदान , खाने के लिए कैंटीन , पीने के पानी की व्यवस्था , और बीमार बच्चों के लिए रोगी कक्ष। परन्तु इनमें से कुछेक सुविधाएँ सामान्यतः प्राइवेट स्कूलों में ही रहती हैं। सरकारी स्कूल इस की ओर ध्यान ही नहीं देते। इस का एक बड़ा कारण सरकार की ओर से उनको फण्ड का न मिलना भी है। पर्याप्त पैसा न होने की वजह से वह अपने स्कूल में छात्र छात्राओं को इन में से बहुत सी प्राथमिक और आवश्यक सुविधाएँ नहीं देते। जबकि स्कूल आने वाले हर छात्र - छात्रा का ये अधिकार है कि वह अपनी सभी आवश्यक आवश्यकताएं स्कूल में रहकर पाएं। प्राइवेट स्कूल तो मनचाही फीस लेकर भी बहुत सी जरूरी सुविधाओं की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं देते। जबकि यह सभी मानते हैं कि घर के बाद स्कूल ही बच्चे का दूसरा ठिकाना होता है। बच्चे के स्कूल में गुजारे समय के दौरान उसको कई तरह की मानसिक , शारीरिक और मनोव्याज्ञानिक अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। जिसमें स्कूल और स्कूल प्रशासन का सहयोग बहुत जरूरी होता है।
इन सब में सबसे ज्यादा जरूरी जो आवश्यकता है वह वयस्क होती बच्चियों की है। उनकी आवश्यकता के लिए स्कूलों को सबसे पहले कदम उठाने चाहिए । चाहे वह स्कूल सरकारी हो या प्राइवेट। बच्चियों की यह आवश्यकता उनके जीवन से जुडी है। जिसे हम दूसरे शब्दों में मेडिकल आवश्यकता भी कह सकते है। बच्चियां उम्र में लगातार बढ़ते हुए रोज विद्यालय जाती हैं। उम्र के अनुसार उनके शरीर में जरूरी बदलाव भी आते रहते हैं। इसमें सबसे जरूरी वह स्थिति होती है जब बच्ची स्कूल समय में रहते हुए माहवारी से हो जाए। ज्यादातर बच्चियां इस परिस्थति से अनजान रहती हैं। उन्हें ठीक से पता भी नहीं होता कि ऐसे में उन्हें क्या और कैसे करना है। यदि घर में उन्हें इस स्थति के बारे में ठीक से न समझाया गया हो तो बच्चियां और भी घबरा जाती हैं। हालाँकि यह एक नैसर्गिक प्रक्रिया है। जिसे हर बच्ची को गुजर कर औरत बनने की ओर कदम बढ़ाने पड़ते हैं। पर इस प्रक्रिया में उन्हें बड़ों के सहयोग की जरूरत पड़ती है। जो उन्हें इस नयी नयी परिस्थति में संभलना सीखा सकें। इस में घर और स्कूल दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
अब इसमें स्कूल की भूमिका की चर्चा करनी आवश्यक है जिसमें उनके सहयोग के मुख्य बिंदुओं पर ध्यान दिया जाना जरूरी है।
पहला : विद्यालओं में एक भली प्रकार से संचालित रोगी कक्ष की व्यवस्था होनी चाहिए। जिसमें एक महिला कर्मचारी नियुक्त होनी चाहिए। जो थोड़ा बहुत प्राथमिक चिकित्सा के बारे में जानती समझती हो।
दूसरा : रोगी कक्ष में वयस्क होती बच्चियों के नाप के स्कूल यूनिफार्म आवश्यक रूप से रखे जाने चाहिए। जिससे यदि उनके साथ ये घटना स्कूल में घट जाए और उनके वस्त्र ख़राब हो जाएँ तो वह वस्त्र बदल कर घर जा सकें और उन्हें स्कूल से लौटते समय शर्मिंदगी का सामना न करना पड़े।
तीसरा : स्कूल के रोगी कक्ष में उनके लिए सेनेटरी नैपकिन या पैड्स की व्यवस्था बिना कोई मूल्य चुकाए दी जानी चाहिए। यह उन बच्चियों की प्राथमिक आवश्यकता और अधिकार है जिसके लिए चाहे तो स्कूूल फीस में कुछ अतिरिक्त राशि जोड़ कर ली जा सकती है पर खासतौर पर उस समय जब वह बच्ची उस परिस्थति से स्वयं परेशान है। उसे बिना किसी मांग के यह सहायता दिलवाई जानी चाहिए।
चौथा : ऐसी बच्चियों और अध्यापिकाओं को यह निर्देश दिया जाना चाहिए कि वह कक्षा में बिना हिचकिचाए अपनी परेशानी बता कर रोगी कक्ष या शौचालय जाने की मांग कर सकती हैं। चाहे वह बीच परीक्षा में भी बैठी हों।
पांचवा : ऐसी बच्चियों को हो सके तो किसी मदद के साथ घर पहुंचा देना चाहिए। क्योंकि अप्रत्याशित परिस्थति में बच्ची घबरा सकती है। घर पर माँ इस स्थति को अच्छे से संभल कर बच्ची को शांत कर सकती है।
सामान्यतः देखने में यही आता है कि विद्यालयों में इस बाबत कोई भी समुचित व्यवस्था नहीं की गयी होती है । इसलिए वह बच्चियां जो माहवारी या तो पहली बार हो रही हैं या फिर जो अपनी निश्चित तिथि से पहले अचानक हो गयीं हो , घबरा जाती है। ऐसे में उन्हें स्कूल के साथ और सहारे की जरूरत होती है। ऐसे में एक स्थिति की बात करना और भी आवश्यक है कि यदि स्कूल सिर्फ बच्चियों का है तब तो स्थति को सँभालने में उतनी तकलीफ नहीं होगी। परन्तु यदि स्कूल छात्र छात्राओं के सामूहिक अध्ययन का हो तो ऐसे में बच्ची की ओर स्कूल की जिम्मेदारी और बढ़ जाती है। क्योंकि वयस्क होते छात्र बच्चों के सामने इस स्थति को सामने न लाते हुए उस बच्ची की मदद करनी पड़ती है। छात्र बच्चे भी इस स्थिति से अनजान होते हैं और उनकी उत्सुकता उस पीड़ित बच्चीं की परेशानी को और बढ़ा सकती है। ऐसे में तुरंत मदद दी जानी चाहिए। स्थिति को सबके सामने न लाने के लिए एक बेहतर तरीका यह भी है कि उस समय एक साथ दो तीन बच्चियों को किसी कार्य के बहाने कक्षा से बाहर बुलाया जाना चाहिए। जिससे उस बच्ची को अलहदा न महसूस हो और कुछ बच्चियों के बीच में घिर कर वह रोगी कक्ष तक आसानी से पहुँच जाए। अमुक बच्ची को मदद के लिए रोक कर बाकि बच्चियों को फिर से कक्षा में भेज दिया जाए । यह कुछ सामान्य लेकिन महत्वपूर्ण उपाय हैं जिनसे पहली बार उस बच्ची के साथ हो रही स्थिति को संभाला जा सकता है।
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