दिखावे की जिंदगी के पीछे का सच
दिखावे की जिंदगी के पीछे का सच ...!! ••••••••••••••••••••••••••• लेखक का पता नहीं पर जिसने भी लिखा बहुत बढियाँ और सत्यपरक लिखा........ ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
दो मित्रों का नया घर बना तो देखने आने का न्यौता मिला.... हम गए।
जीवन के तकरीबन बेशक़ीमती 15 साल सिर्फ़ 'अपना मकान बनवा लूं'....... इस फितूर में निकाल दिए।
मकान, इंटीरियर , एलिवेशन , लक धक साज-सज्जा जैसी चीजें सिर्फ दिखावे के लिए ही होती हैं क्योंकि अति की तो कोई सीमा नहीं।
वे मित्र , उच्चता के घमंड से विकृत हुए ..एक-एक कमरे , गैलरी, गार्डन , आर्किटेक्ट की बारीकियां , उनके निर्माण में लगी सामग्री , ख़र्च हुआ पैसा ..आदि का विवरण दे रहे थे ।
इधर हम भी सौजन्यतावश "हूं , हां " अच्छा ", वाह , ग़ज़ब " जैसी प्रतिक्रियाएं देकर उनके अभिमान को संतुष्ट करने की कोशिश कर रहे थे। जबकि हक़ीक़त यह थी कि हमें उस प्रदर्शन में कोई रुचि नहीं थी। उधर उनकी खासियतें बताने की रनिंग कॉमेंट्री रुकने का नाम नही ले रही थी।
पर मेरी दृष्टि उनके नवीन लक-धक मकान से अधिक , उनके रूखे और नीरस चेहरे पर थी !!
जिस विषय में आपकी रूचि होती है , शायद वैसा ही आपका व्यक्तित्व बन जाता है !
वस्तुओं में अधिक रूचि रखने वाला व्यक्ति भी वस्तु की तरह ही हो जाता है - पार्थिव , चेतना विहीन , निष्प्राण !!
ज़्यादातर वे सभी व्यक्ति जिनके "क़ीमती मकान" होते हैं , कौडियों के आदमी होते हैं !! यह किसी पर व्यक्तिगत कटाक्ष नहीं पर रख सार्वभौमिक सत्य है।
उनका पूरा व्यक्तित्व ..लाभ-हानि , गुणा-भाग, जोड़-घटाना जैसे गणित के उबाऊ प्रमेय की तरह हो जाता है पीछे उनकी सजी-धजी पत्नियाँ भी थीं ......जो सिर्फ़ एक ही बात से मदमत्त थीं कि 'मैं इतने क़ीमती घर की स्वामिनी हूं ! '
भारतवर्ष में लोगों को एक ही शौक है -'अपने सपनों का मकान बनवाना' या फिर बने हुए मकान को रेनोवेट करवाना !!
वे पूरी ज़िंदगी इसी में खपाए रहते हैं !!
थोड़ा मनोवैज्ञानिक शोध करने पर मैंने पाया कि यह मूलतः उनका शौक़ नही है, इसके पीछे गहरे में दिखावे की मनोवृत्ति काम करती है !
यह एक ऐसा भाव है जो समाज की सामूहिक दिखावा वृति से प्रसारित होता है और सभी अहंकारी, प्रतिस्पर्धी रडार इसे कैच करते जाते हैं !!
फिर उसी सिग्नल के अनुरूप उनका जीवन टेलीकास्ट होता है !
वह हर वक़्त अपने आस-पास के लोगों से तुलना में व्यस्त रहता है !!
"तेरे पास ये तो मेरे पास वो , तू कहाँ तो मैं यहां , तेरा लाइफ स्टाइल ये तो मेरा ऐसा ...
ऊपर लिखे "तू" "तेरा" से तातपर्य कुछ परिजन, पड़ोसी और सर्किल के लोग होते हैं जिनकी प्रगति और जीवन शैली से प्रतिस्पर्धा में पूरा जीवन गुज़ार दिया जाता है ।
सुंदर मकान तॊ बना लेता है मगर सुंदर मकान के आस्वाद लायक़ चेतना नही बन पाती !!
बाहरी मकान तॊ बन जाता है मगर चेतना का घर खण्डहर ही रहता है !
चेतना के सभी कमरे--- शरीर, प्राण, मन, भाव, बुद्धी, परम चैतन्य कभी खड़े ही नही हो पाते ।
अगर भोक्ता उपस्थित नही है , तॊ भोग व्यर्थ है !
यदि होता तॊ आपके साथ आपका सूटकेस भी विदेश यात्रा कर आता है ! मगर सूटकेस को कोई रस नही है क्योंकि वह चेतनाशून्य है !
तॊ बात यहाँ महत्वपूर्ण ये है कि चैतन्य की ईमारत भव्य और विराट हो ....! क्योंकि अंततः भोग तॊ चेतना से ही होना है !!
ज़्यादातर भव्य घरों में अकेलेपन से जूझते बीमार , तनावग्रस्त प्रौढ़ या बूढ़े ही पाए जाते हैं !
क्योंकि अक्सर ..तॊ सपनों का मकान बनाते-बनाते इतनी उम्र हो ही जाती है !!
अगर आपकी संगीत में रूचि नही है ..तॊ महंगा म्यूज़िक सिस्टम व्यर्थ है !
अगर आपको फूलों का सुगंध लेने की फुर्सत नहीं तो बड़ी फुलवारी भी व्यर्थ है.... !
अगर रोमांस का समय नहीं तो सुंदर शयनकक्ष का क्या मज़ा ?
अगर शारीरिक स्वस्थ नहीं ....तॊ लज़ीज़ पकवान किस काम के ?
अच्छा मकान होना अच्छी बात है ..मगर साथ ही चेतना की ईमारत भी बनाइ जाए। ताकि तुलनात्मकता खत्म होए।
जीवन बहुत छोटा और अनिश्चित है ! इसे महज़ पदार्थो के संग्रहण में ही न गुज़ार दें !
क्योंकि एक दिन तॊ यह देह भी मिट्टी में मिल जाना है ..और मकान भी !!
जो अजर अमर है , उस पर भी दृष्टि रखें !
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