तुलनात्मकता के लिए रबड़ की महत्ता....!! 
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कभी हम ने ये सोचा है कि हम अपनी सरूपता का कैसे उन्नतिकरण कर सकते हैं  ?  अर्थात खुद के व्यक्तित्व को ऊँचा उठाने के लिए  हमें क्या करना चहिये।  क्या उसके लिए हमें खुद में बदलाव लाने चाहिए ?  क्या हमें दूसरों की अच्छाइयों का अनुसरण करना चाहिए ?  क्या हमें खुद को सामाजिक बुराइयों से बचा कर रखना चाहिए ? या फिर क्या हमें खुद को विपरीत परिस्थितियों में तटस्थ रखने का प्रयास करते रहना चाहिए ? 
              यह तो वह बिंदु है जिन पर हम स्वयं कार्य कर सकते हैं । परंतु यह एक शाश्वत सत्य है कि हर बार जब भी कुछ अप्रत्याशित होता है। उसका ठीकरा हम दूसरों के सर पर ही फोड़ते हैं । उदाहरण के तौर पर देखें जैसे सड़क दुर्घटना , गलती दोनों की थोड़ी थोड़ी होती है परंतु खुद को सही मानते हुए पूरा ट्रैफिक जाम कर लेना यह दर्शाता है कि सब सामने वाले कि वजह से हुआ है। जिसमें हम दोषमुक्त हैं। 
                                               आज की व्यस्त, स्वकेन्द्रित दुनिया में खुद को बड़ा साबित करने के लिए एक उसूल से बना लिया गया है कि अपनी लकीर को लंबा करने के लिए प्रयास नहीं , रबड़ का प्रयोग करो , अर्थात दूसरे की लकीर छोटी करने की कोशिश करो।  जब कभी भी कहीं भी तुम्हारी कोई भी कमी सामने लाई जाए उसकी तुलना दूसरे से कर के यह साबित कर दो कि मैं उससे तो बहुत कम हूँ। यह चलन व्यक्ति को कभी भी बेहतर और काबिल नहीं बनने देगा। क्योंकि इस परिस्थिति में हम खुद को सुधारने के बजाए उस तुलनात्मक प्रतिशत पर ध्यान देने लगते हैं ,  जिसमें हमें यह मानसिक सुकून मिलने लगता है कि फलाने से तो हम बेहतर ही है। हम यह सोचना भूल जाते हैं कि बेहतर होने के लिए हमें किसी दूसरे से नहीं अपने पुराने खुद से तुलना करनी चाहिए ।  जिस दिन हम खुद को बेहतर इस लिए बनाएंगे कि हम जो कल थे वह आज नहीं रहना चाहते वही सच्चा बदलाव होगा। 
     

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