बारिश की साजिश....!!!
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पानी को तरस रहें हैं अब शहर ,
क्योंकि हर आँख सूख सी गयी हैं।
जज़्बातों को स्वार्थ ने लील लिया ,
जुड़कर रहने की भूख चली गयी है।

जिंदगी बस वक्त के बहाव में बह रही,
फिर क्यों यहां हर आदमी तनाव में है।
हमने लगा दी डूबने की तोहमत पानी पर, 
यह नहीं देखा कि छेद अपनी ही नाव में है।

मजबूरियॉ ओढ़ के निकलता हूं घर से अब,
बूंदे तपिश सी देती लगती हैं आजकल ।
वरना आज भी है बारिशों में भीग-भाग कर ,
बच्चा बन कर यूँ ही मन जाता है मचल।

 काले सियाह बादल ने गरज कर बस यूँ ही,
 थोड़ा सा भीगने के लालच से बहलाया मुझे।
क्या पता कि ये साज़िश है उड़ती हुई मिट्टी की, 
जिसने थम कर रहने के लिए फुसलाया उन्हें।
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