
क्या सांसे चलते रहना ही जीवन है ..??
★★★★★★★★★★★★★★★ समझ नहीं आता कि या तो ये विकासशील प्रगति की देन है या फिर ईश्वर से ही गलती हुई है। क्योंकि जब इंसान अपनी भावनाओं के उफान पर काबू न रख पाए तो उसके परिणाम के लिए किसी को तो जिम्मेदार ठहराना पड़ेगा। सोच और समझ का गलत दिशा में विकसित होना और उस की पूर्ति के लिए सभी आंतरिक और बाहरी डर त्याग कर किसी भी हद तक चले जाना ये आज हर मानव की प्रकृति बन गई है। अब तो यह कहना ही पड़ेगा भाड़ में जाये यह विकास जो भावनाओं को इस कदर उबाल देता है कि इंसान वहशी बनता जा रहा है।
जिस तरह आज से कुछ वर्ष पहले 2012 में चलती हुई बस में एक युवती के साथ इस कदर वहशियाना कृत्य किये गए कि उसके शरीर ने इलाज के बाद भी उसका साथ देने से इनकार कर उसे मृत्यु तक पहुंचा दिया । उसी तरह आज फिर हुआ । फिर हम खुद को धिक्कारने के लिए मजबूर हुए। फिर हमने उस विकास को कोसा जिसने छोटे छोटे लड़कों को भी बड़ो के कृत्य समझने लायक बड़ा बना दिया।

मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले की एक सात वर्षीय बच्ची स्कूल से लौटते हुए ऐसे ही दो लड़कों की निगाह में आ गयी। उन्होंने उसे फुसलाया। सुनसान में ले गए। खूब शराब पी , और फिर एक घण्टे तक उस बच्ची के शरीर को नोंचा खसोटा। फिर से शराब पी और उसके शरीर की बेकद्री की रही सही कसर भी पूरी कर डाली । फिर उसका गला दबा कर उसे मारने की कोशिश की। उसके बेसुध हो जाने पर उसे मरा हुआ समझ कर छोड़ कर चले गए।
आज वह बच्ची इंदौर के सरकारी अस्पताल में भर्ती है । उसे पहली बार देख कर नामचीन डॉक्टरों की भी रूह काँप गई। उस की आंतें शरीर से बाहर आ गई हैं। अंदरूनी अंग सब कट फट गए हैं और अपनी जगह से हट गए हैं। डॉक्टरों को समझ ही नहीं आ रहा कि इलाज़ कहाँ से शुरू करें कि उसकी स्थिति में सुधार हो।
हो सकता है कि अब जो मैं कह रही हूं वह सभी को अच्छा नहीं लगेगा पर इस लिए कह रही हूँ कि एक माँ हूँ दर्द का अर्थ समझती हूँ । उस बच्ची को अब मर जाना चाहिए। क्यों उसे बचाने की जद्दोजहद की जा रही है। क्या वह बच कर कभी भी सामान्य जिंदगी जी पाएगी ? सब बच्चों की तरह हंस खेल कूद पाएगी ? क्या वह अपने असामान्य शरीर के दर्द की वजह भूल पाएगी ? क्या इस छलनी शरीर के साथ वह भविष्य में कभी विवाह या मातृत्व का सुख पाने का सोच पाएगी ? ऐसे बहुत से सवाल हैं जिनका जवाब तो उन डॉक्टरों के पास भी नहीं जो उसका इलाज़ कर रहें हैं। जीना , सिर्फ इस लिए की सांसें चल रहीं हो क्या काफी है एक इंसान के लिए। अरुणा शानबाग की तरह इच्छा मृत्यु को तरसते हुए 42 साल तक उस वेदना का दर्द सहना जो किसी दूसरे ने अपनी हवस पूरी करने के लिए दे दी। मुझे सही नहीं लगता , हो सकता है शायद आप की सोच अलग हो पर उसे सत्य साबित करने के लिए दलीलें भी मजबूत होनी चाहिए।
Comments
Post a Comment