तकनीक और भूख ...!
तकनीक और भूख
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जिंदगी की सच्चाई यही है ,
इंसान की कमाई यही है।
कहीं कोई तकनीक से खेले ,
तो कहीं भूख सताई हुई है।
रोज रोज की पेट की आग,
सिक्कों से नहीं बुझती है।
दो रोटी की जुगत में जिंदगी,
पल पल ही दुखदायी हुई है।
क्यों हम आदी हो रहे निरंतर
तकनीक और उपकरणों के।
जबकि हम सब ये मानते हैं कि
क्या खोज कभी चिरस्थाई हुई है?
जीवन पुनःउन्हीं पुराने मूल्यों से,
जीने की ज़िद पर अड़ा हुआ है।
जहाँ दाल,रोटी,पेड़ की छांव हो
साथ मिट्टी की महक समाई हुई है।
अंतहीन तकनीक की ओर भागना,
व्यर्थ समय की बर्बादी ही तो है ।
बेवज़ह की दिखावटी व्यस्तता से
रिश्तों की मिठास निरुत्साही हुई है।
बचपन भी अब बड़ा सा हो गया ,
मीठी मासूमियत कहीं खो गई।
इन्टरनेट,आईपैड और मोबाइल से
सिर्फ़ प्रकृति की तबाही ही हुई है।
गिल्ली -डंडे ,गुलेल,गुट्टक वाला,
बचपना कहाँ गया जरा ढूंढो तो।
घोड़ा जमाल खाई पर मिलकर
दौड़ने भागने की रुखाई हुई है।
अब फ़िर से पुराने दिनों की कद्र ,
समझ आने तो लगी है सबको।
जीवन में बदलाव की प्रक्रिया से
व्यक्तित्व की पुनः सुधराई हुई है।
बहुत सराहनीयऔर समयपरक रचना,शायद इस महामारी की वजह भी ये तकनीकी जंग का नतीजा,और इंसान की जरूरत क्या ये रचना में समाहित है,लेकिन क्या इंसान इस से कोई सबक लेगा या फिर वही अंधी दौड़ श्रेष्ठ बनाने की होड़?
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