राजस्थानी तड़के वाला जीवन....😊
राजस्थानी तड़के वाला जीवन ………!
***************************************
कभी कभी जीवन में ऐसे भी पल आतें हैं जब लगने लगता है कि क्या
वाकई हमारे जीवन की कोई अहमियत है या हम एक बेजान सी जिंदगी सिर्फ दूसरों की सुविधाएं पूरी करने के लिए जिए जा रहें हैं। ऐसा मैं इस लिए लिख रही हूँ कि एक औरत होने का खामियाजा मुझे भी अपने निजी जीवन में अक्सर भुगतना ही पड़ता हैं। पर कहतें हैं न कि पानी में गिरने के बाद न तैरने वाला भी अपने हाथ पैर मारना सीख ही जाता है। वही हाल हम औरतों का है। अपने जीवन से समझौते कर के यूँ जीना सीख लेते है कि अब तो रोज की कड़वी बातें भी हलक से उतारने के लिए पानी की छोटी सी घूँट के सहारे की भी जरूरत नहीं होती। यही जीवन है और इसे ही हम
ख़ुशी से या यूँ कहिये खुश रहने का अभिनय कर के जिए जा रहें हैं। राजस्थान के एक सामान्य से परिवार में विवाहोपरांत आयी मैंने कुछ अलग ही माहौल देखा। यहाँ घर के बाहर के सभी कार्य पुरुष ही करते थे। यहाँ तक कि मैंने देखा कि विवाह आयोजन के लिए महिलाओं से सम्बंधित सामग्री या साड़ियों की ख़रीदारी भी पुरुष सदस्य ही करते थे जबकि यह तो महिलाओं की पसंद का मामला होता है पर उन्हें साथ ले जाना या चुनाव करने की आजादी देना मैंने कभी भी नहीं देखा। हालाँकि मेरे विवाह को तकरीबन अट्ठारह वर्ष से ऊपर हो चुके हैं और अब काफी हद तक सब कुछ बदल भी गया है। पर फिर भी आज भी राजस्थान महिलाओं के लिए उन्नत सोच रखने वालों में से नहीं बन पाया है। इस के उदाहरण जब कभी यदा कदा मैं अपने घर में देखती हूँ तब ये अहसास और भी प्रबल हो जाता है कि औरत होना और निभाना एक बड़ी लड़ाई लड़ने के सामान है।
अब जो स्थिति है वह सुधरने के बजाये और बिगड़ी है। अब जो महिलाऐं जो थोड़ा बहुत बाहर निकलने लगी है उन्हें दोहरी जिम्मेदारियों की मार से जूझना पड़ रहा है। घर पर परिवार की अपेक्षा रहती है कि घर के सामान्य काम जैसे झाड़ू पोछा , कपडे ,बर्तन , खाना आदि करने के बाद स्त्री बाहर के भी कुछ काम निपटाए। आज यदि कोई स्त्री गाड़ी चलाना जानती हो तो उससे सामान्य सी अपेक्षाएं होने लगती है कि वह अब बाहर जाने वाले काम भी गाड़ी के जरिये आसानी से पूरे कर लेगी। उस समय सभी ये भूल जाते हैं कि दिन के चौबीस घंटे ही उस स्त्री के भी हिस्से में आते हैं। जिसमें से दोपहर तक तो वह घर के रोजाना के कार्यों में ही गवा देती है। और फिर बचे घंटों में से बाहर के कार्य और फिर
बच्चों की जिम्मेदारी ,अनुमान लगा सकतें हैं की उसे खुद के लिए कितना समय मिल पाता होगा। मैंने भी यही जिंदगी जी है। मैं ये नहीं कहती की मैं खुश नहीं हूँ पर इस ख़ुशी में जो राजस्थानी सोच का तड़का यदा कदा लगता रहता है वह तकलीफदेह होता है। खैर.………ये जीवन है इस जीवन का यही है, यही है रंग रूप।
***************************************
कभी कभी जीवन में ऐसे भी पल आतें हैं जब लगने लगता है कि क्या
वाकई हमारे जीवन की कोई अहमियत है या हम एक बेजान सी जिंदगी सिर्फ दूसरों की सुविधाएं पूरी करने के लिए जिए जा रहें हैं। ऐसा मैं इस लिए लिख रही हूँ कि एक औरत होने का खामियाजा मुझे भी अपने निजी जीवन में अक्सर भुगतना ही पड़ता हैं। पर कहतें हैं न कि पानी में गिरने के बाद न तैरने वाला भी अपने हाथ पैर मारना सीख ही जाता है। वही हाल हम औरतों का है। अपने जीवन से समझौते कर के यूँ जीना सीख लेते है कि अब तो रोज की कड़वी बातें भी हलक से उतारने के लिए पानी की छोटी सी घूँट के सहारे की भी जरूरत नहीं होती। यही जीवन है और इसे ही हम
ख़ुशी से या यूँ कहिये खुश रहने का अभिनय कर के जिए जा रहें हैं। राजस्थान के एक सामान्य से परिवार में विवाहोपरांत आयी मैंने कुछ अलग ही माहौल देखा। यहाँ घर के बाहर के सभी कार्य पुरुष ही करते थे। यहाँ तक कि मैंने देखा कि विवाह आयोजन के लिए महिलाओं से सम्बंधित सामग्री या साड़ियों की ख़रीदारी भी पुरुष सदस्य ही करते थे जबकि यह तो महिलाओं की पसंद का मामला होता है पर उन्हें साथ ले जाना या चुनाव करने की आजादी देना मैंने कभी भी नहीं देखा। हालाँकि मेरे विवाह को तकरीबन अट्ठारह वर्ष से ऊपर हो चुके हैं और अब काफी हद तक सब कुछ बदल भी गया है। पर फिर भी आज भी राजस्थान महिलाओं के लिए उन्नत सोच रखने वालों में से नहीं बन पाया है। इस के उदाहरण जब कभी यदा कदा मैं अपने घर में देखती हूँ तब ये अहसास और भी प्रबल हो जाता है कि औरत होना और निभाना एक बड़ी लड़ाई लड़ने के सामान है।
अब जो स्थिति है वह सुधरने के बजाये और बिगड़ी है। अब जो महिलाऐं जो थोड़ा बहुत बाहर निकलने लगी है उन्हें दोहरी जिम्मेदारियों की मार से जूझना पड़ रहा है। घर पर परिवार की अपेक्षा रहती है कि घर के सामान्य काम जैसे झाड़ू पोछा , कपडे ,बर्तन , खाना आदि करने के बाद स्त्री बाहर के भी कुछ काम निपटाए। आज यदि कोई स्त्री गाड़ी चलाना जानती हो तो उससे सामान्य सी अपेक्षाएं होने लगती है कि वह अब बाहर जाने वाले काम भी गाड़ी के जरिये आसानी से पूरे कर लेगी। उस समय सभी ये भूल जाते हैं कि दिन के चौबीस घंटे ही उस स्त्री के भी हिस्से में आते हैं। जिसमें से दोपहर तक तो वह घर के रोजाना के कार्यों में ही गवा देती है। और फिर बचे घंटों में से बाहर के कार्य और फिर
बच्चों की जिम्मेदारी ,अनुमान लगा सकतें हैं की उसे खुद के लिए कितना समय मिल पाता होगा। मैंने भी यही जिंदगी जी है। मैं ये नहीं कहती की मैं खुश नहीं हूँ पर इस ख़ुशी में जो राजस्थानी सोच का तड़का यदा कदा लगता रहता है वह तकलीफदेह होता है। खैर.………ये जीवन है इस जीवन का यही है, यही है रंग रूप।
Comments
Post a Comment