आईने में अक्स और मेरा सच ...😦

आईने में अक्स और मेरा सच...…,😦!
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मैं रोज अपने आईने से,
एक ही सवाल पूछती हूँ।
कि क्या मैं बदली  ?
या क्या मेरी मती बदली ?
वह रोज अपना मुहं छुपाते हुए
मुझे अनसुना करने का
अभिनय कर देता है।
मैं भी खुश होकर उसे और ज्यादा
प्यार से निहारने लगती हूँ।
वह इस लिए शायद
क्योंकि मैंने ये सोच लिया है,
कि मैं तो अच्छी ही हूँ।
कोई कुछ भी कहे या सोचे ,
मैंने अपना खाका खुद ही सिलवा कर,
खुद ही पहन भी लिया है।
दूसरों की राय की महत्ता को मैंने ,
आईने का पिछला सिरा मान लिया है।
जो जरूरी तो हैं पर ये सोच लिया कि ,
उसमें मेरी छवि का प्रतिरूप नहीं। 
ये सत्य भूल गयी मैं  कि , 
उस पिछले स्वरुप का ही सहारा है 
जिसने मेरी छवि का रूप निखारा है।  

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