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माँ …… जिस शब्द में एक पूरा संसार समाया है।एक छोटी सी फूल सी कोमल जान को गोद में लेते ही ममत्व का झरना स्वतः ही फूटने लगता है। जिस दिन से कोख में एक अंश के पलने और विकसित होने का आभास होता है। उसी दिन से उससे एक जुड़ाव और लगाव सा होने लगता है और उसके इसी आभास से माँ की ममता का जन्म होता है। इसलिए एक औरत माँ तभी बन जाती है जब से उसकी कोख में संतान का बीज पड़ता है। संतान के जन्म के बाद तो उसे अपने परिश्रम,त्याग और प्रेम का फल देखने को मिलता है। लेकिन कुछ अपवाद ऐसे भी होते है जो इस धारणा को कलंकित करतें हैं। अभी हाल ही में उदयपुर के महाराणा भूपाल अस्पताल में दो माओं ने एक साथ बच्चों को जन्म दिया। बच्चों को नर्सरी में ले जा कर साफ़ करके उनके परिवार को सौप दिया गया। इस पर एक परिवार ने आपत्ति जतानी शुरू की कि बच्चे के जन्म के बाद उन्हें कहा गया था की लड़का हुआ है जबकि उन्हें लड़की सौंप दी गयी। उस परिवार ने बेटी लेने से इंकार कर दिया और दूसरे परिवार के बेटे को अपना बच्चा मान कर देने की जिद करने लगे। अस्पताल वालों ने काफी समझाइश करने का प्रयास किया पर वह लोग नहीं माने। और उस बच्ची को अपनी संतान के रूप में स्वीकार नहीं किया। उस बच्ची को अस्पताल की ही नर्सरी में रख दिया गया। वहां की नर्से उस की देखभाल करने लगी। लेकिन अफ़सोस ये है कि उस माँ को भी तरस नहीं आया की उस दुधमुहिं बच्ची का पेट अपने दूध से भर दे । संवेदनहीनता की हद तक उस बच्ची ने स्थिति का सामना किया और अंततः तीन दिन बाद उस बच्ची ने प्राण त्याग दिए।
अब क्या कहा जाए और किस तरह से उस बच्ची के जाने
का अफ़सोस मनाया जाये ? एक मासूम जो जीने की आस ले कर इस जहान में आयी उसे सिर्फ इस लिए जिंदगी से महरूम कर दिया गया की वह एक बेटी थी और एक माँ के दूध पर हक़ उसका नहीं एक बेटे का था। त्रासदी है .......... परिवार के दूसरों की तो मैं नहीं जानती पर ये सोच कर आश्चर्य हो रहा है की वह माँ कैसे चुप बैठी रही। उसे क्या कोख की हलचल से , उसके होने के आभास से या उसके छोटे से कोमल से मासूम चेहरे से प्यार नहीं हो गया था। माँ की इस प्रतिक्रिया को देख कर हैरानी और गुस्सा दोनो है। पर हाय रे ये दुनिया। उसी को ठुकराती है जिस की कोख किसी पुरुष के जन्म का कारण बन सकती है। मर गयी वह जिस को जीने की आस थी। जो अपनी माँ की गोद में छुप कर सुकून और सुरक्षा पाना चाहती थी। यही है समाज जो कहने के लिए तो बराबरी का दम्भ भरता है पर जब खुद पर बात आती है तो ये सारे फलसफे बेमानी हो जाते हैं।
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