क्या पुरे खुलेपन का ठेका सिर्फ पुरुषों ने ही ले रखा है कि कहाँ जी चाहा मूत्र विसर्जन कर दिया। गाली भरी भाषा का प्रयोग कर दिया या अकेली युवती का शारीरिक शोषण तक कर दिया। ये सब आवश्यक है सिर्फ एक पुरुष के लिए। स्त्री कहाँ है इसमें ? आज भी जहाँ एक लाल रक्त धब्बा एक बच्ची और स्त्री के लिए शर्मिंदगी का कारण है वहाँ स्त्री की अस्मिता की बात हम क्यों और कैसे कर सकते हैं। और फिर इस सत्य का दूसरा पहलु देखिये कि यदि कोई स्त्री रजस्वला न होकर माँ बनने के काबिल न हो तो उसे बाँझ या अपशकुनी कह कर समाज में जीने नहीं दिया जाता। मतलब चित भी मेरी और पट भी मेरी। हो तो उसे स्वयं तक सीमित रखो और न हो तो समाज से बहिष्कृत हो जाओ। घटिया सोच और घटिया नियमों के ही कारण ही स्त्री कभी भी खुल कर जीने और उड़ने का नही सोच सकती। उस पर भारतीय परंपरा में सर्वप्रसिद्ध मंदिरों के महंत और पंडितों ने अपनी सत्ता बनाये रखने के लिए उल जुलूल नियमों और धारणाओं का जाल बिछा दिया है। जिसमें हम अपनी धर्मान्धता के कारण फंस ही जाते हैं।

So we all the women feel proud to bleed monthly to give birth to a thankless and awful men . God grant me the serenity to accept selfish and ungrateful men for who they are , and courage to not become bitter .
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