एक बार खुद पर ले कर के तो देखो ....!!
एक बार खुद पर ले कर तो देखो ......... !
(भ्रष्ट नेताओं से एकमत और निष्ठावान होने की आस )
कानून में संशोधन कर दिया गया और उसके तहत अब जघन्य अपराधों की श्रेणी में 16 साल के नाबालिग को बालिगों की श्रेणी में रखा जाएगा। जिसके तहत उसे 7 साल की सजा , जुरमाना या अन्य कठोर सजा दी जाएगी। ये एक छोटा सा प्रयास है , लेकिन उस प्रयास से भी कोई सार्थक बदलाव आएगा ये सोचनीय विषय है। यूँ तो जुवेनाइल जस्टिस बोर्ड ने संसद से पास इस कानून को स्वीकार कर लिया है परन्तु इसे लागू करने में अभी कई अड़चने आएँगी। एक बात जो गले नहीं उतरती जिस पर मैंने पहले भी चर्चा की थी वह है सोच से बालिग को नाबालिग क्यों माना जाता है ? दूसरा ये की उस चेहरे पर कपड़ा बांध कर क्यों ले जाया जाता है ? तीसरा और सब से महत्वपूर्ण ये कि कम सजा दे के उसे ये क्यों अहसास कराया जाता है कि तू और सामान्य कैदियों से अलग है। अभी भी जो कानून पास हुआ है उसमे अधिकतम सात वर्ष की सजा का प्रावधान है। जबकि उसका अपराध तो कही से भी बच्चों जैसा नहीं फिर उसके साथ इतनी रियायत क्यों ?
आज कल बच्चे उम्र से पहले बड़े हो रहे हैं। वजह है टीवी , सिनेमा और इंटरनेट। ये सब उन्हें वो चीज परोस रहें है जो एक समय में हम बड़ों तक ही सीमित रहती थीं। स्त्री पुरुष के संबंधों को खुले तौर पर दिखा कर ये उनकी मानसिक उत्तेजनाओं को बढ़ते हैं जो इस तरह की अपराधिक घटनाओं का निमंत्रण बनती हैं। जब कोई बच्चा उम्र से आगे जा कर कोई वयस्क हरकत करे तो उसे कतई बच्चा नहीं समझा जाना चाहिए। क्योंकि एक बार रियायत का अर्थ है उसे ये अहसास करना की उसके बचपने के कारण उसे और भी कई गलतियों के लिए माफ़ी दी जा सकती है या कम सजा का हक़दार बनाया जा सकता है। दूसरा ये प्रश्न भी जायज है कि चेहरा ढँक कर उसे दुसरो से बचाया क्यों जाता है ? जबकि उसके कुकृत्य के कारण सब को सावधान करने के किये उसका चेहरा जग जाहिर करना चाहये ताकि वह जिस भी समाज में रहे सभी उससे आवश्यक दूरी बना कर रख सकें। क्या जरूरी है की तीन साल सजा काट लेने पर उसके मन का प्रतिशोध ख़तम हो गया हो और वह भविष्य में ऐसा कभी न करे। क्या कोर्ट इस बात का सबूत दे सकती है की उसे आत्मग्लानि है अपने कृत्य पर। तो हो सकता है कि जेल में रह कर अन्य कैदियों के साथ समय गुजर कर वह और भी आक्रामक और बर्बर हो कर निकला हो। ये कई महत्वपूर्ण मुद्दे है जिन का एक बार फिर से पुनर्विचार होना चाहिए। और इस के लिए सभी सांसदों की रजामंदी होनी चाहिए। पर समस्या ये है कि अपने तवे पर सिर्फ अपनी रोटियां सेकने वाले ये सांसद दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में छः व्यक्तियों द्वारा सामूहिक निर्मम बलात्कार के बाद सड़क पर मरने के लिए छोड़ दिए जाने वाली ज्योति उर्फ़ निर्भया का दर्द कभी भी महसूस नहीं कर सकते। हाँ सार्वजनिक तौर पर महसूस करने का दावा जरूर कर सकते हैं। धन्य है ये देश और धन्य है इस देश का कानून और कानून को पारित करने वाले ये तथाकथित भ्रष्ट नेता।
सच ही है हमें कभी माफ़ नहीं करेगी निर्भया उर्फ़ ज्योति की रूह। जिसे हमने चर्चाओं का बाजार तो बनाया पर उसके दर्द को महसूस नहीं किया।
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