ईश्वर का कहर या मानव की ज्यादती........ !!
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यूँ तो प्राकृतिक आपदाएं सभी जगह आती ही रहती हैं।  देश विदेश सभी स्थानों पर इससे जूझते हुए इंसानों को देखा जा सकता है।  कभी ज्वालामुखी , कभी बाढ़ , कभी बर्फ़बारी , कभी सूखा , कभी बवंडर , कभी भूस्खलन , कभी बदल फटना बिजली गिरना ,और भी न जाने कितने ही तरह के प्राकृतिक संताप।  इसे हम ईश्वर का क्रोध कहें या हमारी गलतियों का अभिशाप यही आज हमें निर्धारित करना है। 
                                                  ईश्वर ने मानव को जन्म देकर उसके जीने का सहारा बनने के लिए प्रकृति बनाई।  उस प्रकृति में जंगल , नदी , पहाड़ , जानवर और वह तमाम कंद मूल है। जो आज हमने किसी न किसी रूप  में प्रभावित करते हैं।  हमें इन सभी की आवश्यकता प्रत्यक्ष या परोक्ष  रूप में है। पेड़ पौधों से भरा पूरा जंगल हरियाली के साथ जानवरों के रहने को जगह देता है साथ ही वर्षावन बन कर मिट्टी के कटाव  को रोकता है।  वायु शुद्ध करता है और बादलों की गति को प्रभावित करता है। यही पेड़ पौधे हमें वनस्पति या औषधि के रूप में भी योगदान देते हैं। इसी तरह नदियां हमारा जीवन स्रोत हैं।  हमें पानी उपलब्ध करने के साथ इनके मुहाने पर जीने के साधन उत्पन्न होते हैं। गांव बसतें हैं।  पानी के बिना जीवन की कल्पना भी व्यर्थ है। अब पहाड़ की बात करें। यह हवाओं का रुख निर्धारित करने ,जंगली जानवरों को आश्रय देने और  सबसे बड़ा मौसम को व्यवस्थ्ति बनाये रखने में योगदान देते हैं। इनकी मजबूती से जमीन का बंधाव बना रहता है।  यह सभी हमारे जीवन की अहम् आवश्यकताएं हैं। 
                        जिस प्रकार हमारा शरीर का एक सिस्टम बना हुआ है।  उसके बिगड़ने पर हम बीमार पड़ने लगते हैं।  उसी प्रकार प्रकृति का भी एक निश्चित सिस्टम है। उसके डिस्टर्ब होने पर प्रकृति बीमार पड़ने लगती है और उसका प्रभाव हमें इन प्राकृतिक आपदाओं के रूप में दीखता है। आज केरल कर्नाटक बुरी तरह बाढ़ के चपेट में हैं।  इसे भगवान का कहर माना जा रहा है। यह सही हो सकता है की यह ईश्वर की ही नाराजगी का परिणाम है।  पर ईश्वर नाराज़ क्यों है ?? क्यों उसने इतने सारे लोगों को ये सजा एक साथ दी है ?? जबकि सबकी गलतियां एक तो नहीं होंगी ??  क्यों उसने उन मासूमों पर भी दया नहीं की जो अभी जन्में हैं और किसी भी तरह की गलतियों से कोसों दूर हैं ??  क्यों इस सज़ा के चलते सबकी जीवन भर की कमाई को तहस नहस कर दिया ??  अब इस सभी सवालों  के जवाब शायद ये हो सकते हैं।  कि  प्रकृति ईश्वर की बनाई अनुपन देन है। उसे हमें अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल किया।  ये भी कि हमने इसको संजों कर सुरक्षित रखने के रास्तों को खुद ही बंद कर दिया।  ये भी कि हम हमेशा और-और की ख्वाहिश में इसका जबरन  दोहन करते गए।  ये भी कि हमने उसको उसकी प्राकृतिक रूप से अलग करने का प्रयास किया। जैसे नदियों की बहती धारा पर डैम बनाना।  ये भी कि हमने खुद को व्यवस्थ्ति रखने की फ़िराक़ में इसकी अव्यवस्था पर ध्यान ही नहीं दिया। ये भी कि जो कुछ बातें हमें पता है उनको भी जानबूझकर अनदेखा किया। ये भी कि जो चक्र ईश्वर का बनाया है जिसमें मौसम , साधन और दोहन की एक संतुलित व्यवस्था थी उसे बदल कर अपने अनुसार ढालने का प्रयास किया। ये भी कि बहुत सी जगह हम खुद को ही खुदा समझ कर व्यवस्थापन करने लगे। 
                      अब इतना सब कुछ होने के बाद ईश्वर को तो नाराज होना ही हैं।  उसकी नाराज़गी यूँ कुछ इस तरह सामने आएगी यह आभास तो पहले से रहता ही हैं। बस हम समझते नहीं है।  अभी भी समय है , जब हमें ईश्वर की बनाई इस प्रकृति की कदर करनी पड़ेगी। उसे उसके स्वरुप में ही रहने की व्यवस्था बनाई पड़ेगी।  और बिना वजह उसके अत्यधिक दोहन से बचना पड़ेगा। 

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