अहसास, मृत्यु का ....😩

अहसास, मृत्यु का ... ! ! 
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आखिर अंत समय पता चल ही जाता है कि जीवन कितना प्यारा होता है। हम क्यों लाख तकलीफों , समस्याओं और विपरीत परिस्थितियों के बावजूद जीना चाहते हैं। ये अहसास उन दरिंदों को भी हुआ । जब फाँसी से एक रात पहले उन्हें ये लगा कि ये इस दुनिया में उनकी आखिरी रात है।  जीने की ललक ही तो थी जो फाँसी को उम्र कैद में बदलवाने की जुगत भिड़ाई जा रही थी। हालांकि उनकी दयनीय स्थिति पर दया भी आ रही  परन्तु ये दया तुरंत ही घृणा में बदल जाती है जब निर्भया की स्थिति याद आती है ।
            फाँसी के एक रात पहले न तो उन्होंने ठीक से खाना खाया , न ही कपड़े बदले , न ही नहाया । क्योंकि ये सब आवश्यकताएं जिंदा रहने के लिए जरूरी हैं । मरने के लिए नहीं । शायद उस रात उन्हें बलात्कार के समय निर्भया को हो रही तकलीफ़ का अंदाज़ा हो पाया होगा । हालांकि दोनों की तकलीफ़ में दर्द की कोई तुलना नहीं । ये चारों सभी उपयुक्त आराम के साथ निगरानी में रात गुजार रहे थे। जबकि वह बच्ची छह अनजान लोगों के बीच नोची कसोटी जा रही थी।  जबरदस्ती का दर्द , विरोध करने पर मारे जाने का दर्द और सबसे बड़ा औरत होने की शारीरिक व्यथा का दर्द झेल रही थी। इन दरिंदों को दुख तकलीफ से दूर रखा जा रहा था ताकि फाँसी में रुकावट न आये। जबकि उस रात वह बच्ची उस दुख से जूझ रही थी जिसका अंत उसे 12-15 दिन की असह्य पीड़ा के बाद मौत के रूप में देखना था। 
              आज सात साल बाद भी मैं उस घटना को अपनी आंखों के सामने होता हुआ महसूस करती हूं। वो दर्द , वो चीत्कार , वो बचाव , वो गिड़गिड़ाना और भी न जाने बहुत कुछ .....चलो मौत ने अंत समय पर उन्हें जिंदगी के प्यारे होने का सबक तो सिखाया।  सही हुआ , एक तरह से सात साल उन्होंने पल पल मौत को महसूस किया यही उनकी सज़ा थी। 

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