मासिक धर्म अर्थात माहवारी : मिथक
मासिक धर्म अर्थात माहवारी: मिथक ••••••••••••••••••••••••••• महिलाओं के मासिक धर्म या माहवारी से सम्बंधित बहुत सी धारणाएं समाज में व्याप्त हैं जिन्हें हम धार्मिक चोला ओढ़ा कर अपना रूढ़िवादी प्रयोजन साधते हैं। जबकि हिन्दू धर्म या उसके लिए लिखे तमाम ग्रथों और साहित्य में कहीं भी रजस्वला स्त्री को अपवित्र या पूजा योग्य ना होने का नहीं माना गया है।
जिस तरह पुरुष के लिए ब्रम्हचार्य महत्वपूर्ण है उसी प्रकार स्त्री के लिए रजस्वला होना महत्वपूर्ण है। क्योंकि पुरुष ब्रम्हचर्य से अपने संयम को परिभाषित कर रहा और स्त्री रजस्वला स्थिति में निषेचित अंडों को भ्रूण में बदलने की प्रक्रिया का त्याग कर रही है।अतः पुरुष ब्रम्हचर्य का पालन करते हुए अपने अंडों को संचित करते हैं उसी तरह एक स्त्री ने ब्रम्हचर्य का पालन करते हुए जीवन रचने वाले अंडों का त्याग करती है। इन दोनों को धर्मिक दृष्टि से देखें तो ये पवित्र कर्म है।
पुरातन काल में जब बच्ची पहली बार मासिकधर्म से गुजरती थी तब उसे समारोह के रूप में मनाया जाता था। ये इसलिए कि वह बच्ची इस प्रक्रिया को सहज स्वीकार करे और आगे आने वाले तमाम रजस्वला महीने की पीड़ा में वह विचलित ना होए। बाद के दिनों में ये चलन इसलिए बन्द किया गया कि माता पिता नहीं चाहते कि उनकी बच्ची बड़ी हो गई ये सभी को पता चले।
मासिकधर्म में पुरातन साहित्य द्वारा जिस कर्मों के लिए मना किया जाता है वह भी शरीर और उसकी आर्युवेदिक स्थिति के अनुसार उचित है। जैसे
नहाना नहीं , कम बोलना , शोरगुल से दूर रहना, एकांत में रहना ,बाल नहीं झाड़ना, तेल मालिश नहीं करना, नाखून नहीं काटना, तीखा मसालेदार नहीं खाना आदि-आदि । जिसमें कहीं भी मंदिर ना जाने संबंद्धि मनाही नहीं है। मंदिर ना जाने का यदि असल कारण समझेंगे तो पाएंगे कि चूंकि माहवारी के समय शरीर की प्रकृति के अनुसार नहाना मना किया गया है तो बिना नहाए पूजा पाठ या प्रभु स्पर्श उचित नहीं। बस यही वजह है। क्योंकि ये तो हम सभी मानेंगे की माहवारी में भी पवित्र मंत्रों के पाठ से उन मंत्रों की पवित्रता नष्ट नहीं होती। बल्कि उन पीड़ादायक दिनों में प्रभु के साथ रहने का ढांढस मिलता है। अब अगर आयुर्वेद की क्लिष्ट भाषा के बदले सामान्य भाषा में समझें तो इंसानी शरीर दो भागों में बंटा है स्थूल शरीर और सूक्ष्म शरीर। स्थूल मतलब बाहरी आवरण जिसे हम भोजन से सुदृढ बनाते हैं। सूक्ष्म अर्थात वह आंतरिक क्रियाएं जो शरीर के अंदर चलकर स्थूल शरीर को चलायमान रखती हैं। अब सूक्ष्म शरीर में वात पित्त और कफ तीन दोषों की उपस्थिति होती है। वैसे तो ये तीनों ही शरीर के लिए आवश्यक गुण के समान हैं। जिसमें वात का कार्य शरीर में होने वाली गतिशील क्रियाओं का निर्धारण होता है जैसे रक्त का बहाव, शरीर में वायु का बैलेंस , मल मूत्र विसर्जन आदि...... पित्त का कार्य शरीर में ऊर्जा का निर्धारण है जिसमें भोजन पाचन के लिए या खाने से ऊर्जा उतपन्न करने के लिए आदि है। तथा कफ़ का कार्य स्थिरता बनाये रखना है जिसमें ये वात और पित्त में भी उपयोगी स्थिरता बनाये रखने का कार्य करता है। अब ये समझा जाये कि ये तीनों गुण से दोष क्यों बने....जब इन तीनों के बीच का समन्वय संतुलन बिगड़ जाता है। तो ये दोष में बदल जाते हैं।
अब रजस्वला परिस्थितियों में स्त्रियों के रक्त बहाव के लिए वात प्रक्रिया अधिक हो जाती है। साथ ही पित्त को भी अधिक ऊर्जा उतपन्न करनी पड़ती है कि रक्त बहाव नियम से चलता रहे । तो जब ये दोनों बढ़े हुए रहते हैं तो ऐसे में उदाहरण के लिए स्नान करने से बढ़ा हुआ पित्त प्रभावित होता है। अर्थात जब शरीर में ऊर्जा अधिक बन रही हो तब नहाया जा रहा। इसी तरह जोर से हँसना शोरगुल में रहने से वात या वायु प्रभावित होतें हैं इसलिए उन्हें शांत जगह में रहने के लिए कहा जाता है।
अब प्रश्न ये भी उतपन्न होगा कि मासिक धर्म में स्त्री को करना क्या चाहिए..... तो शरीर में रज, सत और तम तीन तरह के गुण होते हैं। जब स्त्री रजस्वला होती है तो रज गुण का ह्रास हो रहा होता है। जिससे मन और शरीर में तम यानी तामसिक वृति बढ़ती है। ऐसे में सत गुण की ओर बढ़ना अच्छा होता है । अर्थात शांत बैठ कर मंत्रोच्चार करना , ईश्वर का ध्यान करना या कुछ अच्छा सोचना। ये सब सत गुण को बढ़ाते है। इसलिए शारिरिक और दैनिक क्रियाकलापों को धर्म से जोड़ कर उनके बारे में भ्रांति रखना उचित नहीं। जबकि सभी कार्यों में वैज्ञानिक बिंदुओं से कुछ आवश्यक माना गया। जिसे करने से मन तन दोनों अच्छा रहता है।......
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