विपदाओं के जवाबदेह हम स्वयं ...😣
विपदाओं के जवाबदेह हम …… !
हे परमात्मा दया करो। .......... अब शायद हर वक्त एक यही पुकार होठों पर होनी चाहिये। हम जितना भी अपने कर्मों से ईश्वर के वरदानों की अवहेलना करेंगे। उतना ही हमें उसकी कृपा का मोहताज़ बना रहना पड़ेगा। अब वाकई वह समय आ गया है कि हम उस परमपिता परमेश्वर के प्रति जवाबदेह बन कर अपने कर्मों की फिर से विवेचना करें। अपनी नियत , अपना व्यव्हार , अपना जवाब , अपने कर्म , अपनी जवाबदेही , अपना प्रत्युत्तर , अपना संयम , सभी को एक बार फिर से पुनर्विचार के लिए कटघरे में खड़ा करना पड़ेगा। आखिर क्यों हमने उसके सामने ऐसे हालत बना दिए कि उसे सजा देने के लिए बाध्य होना पड़ रहा हैं। ये सोचने का विषय हैं। अब वाकई समय आ गया है कि हम खुद को थोड़ा सा बदल कर उसके रहमों करम की छत्र छाया को अपने ऊपर बने रहने का सुख उठाते रहें। ये हमारे बदलते व्यव्हार और कार्यशैली का ही परिणाम है कि वो अपनी कुदृष्टि उठाने पर मजबूर हो गया है। ये तो हम सभी जानते हैं कि प्रकृति उसका ही प्रतिरूप है। इस लिए उस परमपिता ने जब भी हमें सजा देने के लिए खुद को बाध्य पाया उसने प्रकृति को आदेश दे कर मानव को कमजोर साबित कर दिया है। प्रकृति अपनी जोर आजमाइश से मानव के हर निर्माण के परखच्चे उड़ाते हुए ये दिखा देती है कि जो कुछ भी उस ईश्वर ने बनाया है वही शाश्वत है , सत्य है। हम कभी भी उसके निर्माण को चुनौती नहीं दे सकते। विपदाएँ हमारे ही कुकृत्यों का प्रतिफल हैं। और हम इसे रोक सकते हैं बशर्ते उसकी देन का सम्मान करना सीखें। इस के लिए सब से पहले हमें अपना व्यव्हार संयत करना होगा और आक्रामकता छोड़नी होगी। फिर प्रकृति को ससम्मान अपने जीवन में बनाये रखने का प्रयास करना होगा। ये एक महत्वपूर्ण सोच है
जिसे आज से अपना कर हम ईश्वर और प्रकृति दोनों को प्रसन्न रख सकते हैं। .......
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हे परमात्मा दया करो। .......... अब शायद हर वक्त एक यही पुकार होठों पर होनी चाहिये। हम जितना भी अपने कर्मों से ईश्वर के वरदानों की अवहेलना करेंगे। उतना ही हमें उसकी कृपा का मोहताज़ बना रहना पड़ेगा। अब वाकई वह समय आ गया है कि हम उस परमपिता परमेश्वर के प्रति जवाबदेह बन कर अपने कर्मों की फिर से विवेचना करें। अपनी नियत , अपना व्यव्हार , अपना जवाब , अपने कर्म , अपनी जवाबदेही , अपना प्रत्युत्तर , अपना संयम , सभी को एक बार फिर से पुनर्विचार के लिए कटघरे में खड़ा करना पड़ेगा। आखिर क्यों हमने उसके सामने ऐसे हालत बना दिए कि उसे सजा देने के लिए बाध्य होना पड़ रहा हैं। ये सोचने का विषय हैं। अब वाकई समय आ गया है कि हम खुद को थोड़ा सा बदल कर उसके रहमों करम की छत्र छाया को अपने ऊपर बने रहने का सुख उठाते रहें। ये हमारे बदलते व्यव्हार और कार्यशैली का ही परिणाम है कि वो अपनी कुदृष्टि उठाने पर मजबूर हो गया है। ये तो हम सभी जानते हैं कि प्रकृति उसका ही प्रतिरूप है। इस लिए उस परमपिता ने जब भी हमें सजा देने के लिए खुद को बाध्य पाया उसने प्रकृति को आदेश दे कर मानव को कमजोर साबित कर दिया है। प्रकृति अपनी जोर आजमाइश से मानव के हर निर्माण के परखच्चे उड़ाते हुए ये दिखा देती है कि जो कुछ भी उस ईश्वर ने बनाया है वही शाश्वत है , सत्य है। हम कभी भी उसके निर्माण को चुनौती नहीं दे सकते। विपदाएँ हमारे ही कुकृत्यों का प्रतिफल हैं। और हम इसे रोक सकते हैं बशर्ते उसकी देन का सम्मान करना सीखें। इस के लिए सब से पहले हमें अपना व्यव्हार संयत करना होगा और आक्रामकता छोड़नी होगी। फिर प्रकृति को ससम्मान अपने जीवन में बनाये रखने का प्रयास करना होगा। ये एक महत्वपूर्ण सोच है
जिसे आज से अपना कर हम ईश्वर और प्रकृति दोनों को प्रसन्न रख सकते हैं। .......
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