मनुस्मृति अध्याय 2 भाग 1
मनुस्मृति अध्याय - 2 भाग -1 •••••••••••••••••••••••••••••
कामना का सम्बन्ध कुछ अनुपयोगी विषयों से जोड़ कर देखें जाने के कारण उसे गलत दृष्टि से देखा गया।
इस सम्बंध में मनु जी ने कहा कि कामनाशीलता अवैधानिक नहीं है। क्योंकि ज्ञान की कामना रखना भी तो एक कामना ही है । परन्तु सर्वथा अकाम और कामनारहित होना भी अच्छी बात नहीं है
क्योंकि वेदज्ञान की कामना भी तो कामना ही है और वेदविद्या का ज्ञान प्राप्त करने योग्य है और वेदों में प्रतिपादित कर्मों का अनुष्ठान करने योग्य है तो उस ज्ञान की प्राप्ति उन कर्मों के जानने की कामना (इच्छा) करने पर होगी। अतः कामना का सर्वथा परित्याग उचित नहीं। कहने का अभिप्राय यह है कि जहां तक कामना का सम्बन्ध लौकिक इच्छाओं की प्राप्ति से है वहां तक वह त्याज्य और निन्दनीय है, परन्तु जब उसका सम्बन्ध तत्त्वज्ञान (वेदविद्या-प्राप्ति) से हो जाता है, तब वह कल्याण का साधन बन जाती है। इस प्रकार कामना के त्याग की नहीं, अपितु उसकी दिशा बदलने की आवश्यकता है।
कामना (अच्छी कामना) के महत्त्व का वर्णन करते हुए महर्षि मनु कहते हैं—कामना से ही संकल्प (कार्य करने की प्रवृत्ति अथवा दृढ़ निश्चय) का जन्म होता है। जब तक मनुष्य शुभ कर्मों में प्रवृत्त होने की इच्छा नहीं करेगा, तब तक उसमें उन कर्मों को सम्पन्न करने का दृढ़ निश्चय (पक्का विचार) कहां से आयेगा? स्पष्ट है कि इच्छा ही अनुष्ठान के निश्चय की जननी है। संकल्प अथवा दृढ़ निश्चय से ही यज्ञ सम्पन्न होते हैं और सभी व्रत, यम-नियम तथा धर्मकृत्य पूर्ण होते हैं। स्पष्ट है कि कामना का अत्यधिक महत्त्व है।
सत्य तो यह है कि इस संसार की कोई ऐसी क्रिया भोजन, भजन, शयन, जागरण तथा श्रम-विश्राम आदि नहीं है , जिसके पीछे प्रेरक शक्ति के रूप में कामना कार्यरत नहीं। जब तक मनुष्य कुछ करने की कामना नहीं करेगा, तब तक कुछ करने में प्रवृत्त कैसे होगा? कामनारहित व्यक्ति कभी कुछ कर ही नहीं सकता। इस प्रकार संसार में जो कुछ होता दिखाई देता है, वह सब कामना का ही चमत्कार है। शास्त्र के अनुसार कर्म में प्रवृत्त होने की कामना करने वाला विवेकशील पूरुष न केवल इस संसार के सभी अभीष्ट पदार्थों को प्राप्त कर लेता है, अपितु जीवन के उपरान्त सद्गति भी प्राप्त करता है, वह देवलोक में जाकर निवास करता है।
‘अमरलोकता’ का अर्थ अमरत्व, अर्थात् अविनाशी स्थिति जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त भी हो सकता है।
मनुस्मृति में भगवान् मनु ने वर्णाश्रम के लिए जिन धर्म-कर्म आदि का विधान किया है, उन सबका आधार वेद ही है। मनुजी वेद को सभी ज्ञान-विज्ञान का आदि-स्रोत मानकर चले हैं। मनु जी ने स्पष्ट किया है कि
वेद-शास्त्र में प्रतिपादित धर्म का अनुष्ठान-पालन करने से मनुष्य इस लोक में यश और परलोक में अत्युत्तम सुख की प्राप्ति करता है।
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भाग -1 इति........शेष अगले भाग में
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