सुख बेटी होने का ....👰
"सुख" बेटी होने का …………!
भारतीय समाज में जब भी एक स्त्री गर्भवती होगी तो उसे पुत्रवती भवः या बेटा हो ,यही आशीर्वाद दिया जाता है। जबकि बेटी का होना या जन्म लेना कोई बहुत बड़ी ख़ुशी का कारण नहीं बनता। ऐसा संकुचित मानसिकता के कारण है। आज मैं गर्व से दो बेटियों की माँ होने का दम्भ भर सकती हूँ। मेरी बड़ी बेटी ने 12 CBSE , बोर्ड की परीक्षा दी और अपने विद्यालय के कई प्रतिभाशाली बच्चो को पीछे छोड़ते हुए पुरे शहर में दूसरा स्थान प्राप्त किया। जब मैं विद्यालय पहुंची तो सभी अध्यापक स्वयं से आगे चल कर मुझे बधाई और उसे आशीर्वाद देने लगे। ऐसे ही समय पर लोग क्यों नहीं ये याद करते है कि ये गर्व हमें बेटी के कारण मिला है। यदि हम अपने समाज से विवाह के बाद उपनाम बदले जाने की परंपरा खत्म कर दे तो कभी भी कोई भी बेटी इस लिए नहीं दुत्कारी जायेगी कि इस से कौन सा हमारा खानदान चलना है ? मुख्य कारण ही यही है। दूसरे के घर जा कर बेटी उस घर की हो जाती है तब उस से उत्पन्न बच्चे भी उसी खानदान के वारिस कहलाते हैं। बेटी के माता पिता उन बच्चो को अपने परिवार का सदस्य भर मान सकते है पर उनसे परिवार की परंपरा आगे बढ़ने का सिलसिला ससुराल पक्ष का ही होता है।
क्यों विवाह के उपरांत एक युवती को अपने जन्मजात परिवार की पहचान त्याग कर एक नयी पहचान के साये में पनपना पड़ता है। यही से पुराने परिवार के रिश्ते - नाते फीके पड़ने लगते हैं। ऐसे अनगिनत कारणों की फेहरिस्त है जो भ्रूण हत्या के लिए जिम्मेदार हैं। कोई नहीं चाहता की बेटी पैदा हो और उसे किसी दूसरे परिवार के घर भेज कर अपने परिवार में हमेशा के लिए एक कमी बना दी जाए। क्या ये सत्य नहीं है कि बच्ची के विवाहोपरांत उसके माता पिता उसकी खैर खबर जानने के लिए बेचैन रहते होंगे। आखिर उनकी संतान है वो .... मुझे व्यक्तिगत रूप से ऐसा लगता है कि सबसे पहले ये उपनाम बदले जाने की परंपरा खत्म होनी चाहिए। उसके बाद महिला के परिवार जनों को भी उसके बच्चो को उत्तराधिकारी कहने का मौका मिलना चाहिए। आखिर दो परिवारो के संयोग से एक नयी पीढ़ी का जन्म होता है तो योगदान भी दोनों का ही गिना जाना चाहिए। खैर मुझे गर्व है कि मैं दो बच्चियों की माँ हूँ जो हमेशा मुझे गर्व करने के मौके देती रहेगी।
भारतीय समाज में जब भी एक स्त्री गर्भवती होगी तो उसे पुत्रवती भवः या बेटा हो ,यही आशीर्वाद दिया जाता है। जबकि बेटी का होना या जन्म लेना कोई बहुत बड़ी ख़ुशी का कारण नहीं बनता। ऐसा संकुचित मानसिकता के कारण है। आज मैं गर्व से दो बेटियों की माँ होने का दम्भ भर सकती हूँ। मेरी बड़ी बेटी ने 12 CBSE , बोर्ड की परीक्षा दी और अपने विद्यालय के कई प्रतिभाशाली बच्चो को पीछे छोड़ते हुए पुरे शहर में दूसरा स्थान प्राप्त किया। जब मैं विद्यालय पहुंची तो सभी अध्यापक स्वयं से आगे चल कर मुझे बधाई और उसे आशीर्वाद देने लगे। ऐसे ही समय पर लोग क्यों नहीं ये याद करते है कि ये गर्व हमें बेटी के कारण मिला है। यदि हम अपने समाज से विवाह के बाद उपनाम बदले जाने की परंपरा खत्म कर दे तो कभी भी कोई भी बेटी इस लिए नहीं दुत्कारी जायेगी कि इस से कौन सा हमारा खानदान चलना है ? मुख्य कारण ही यही है। दूसरे के घर जा कर बेटी उस घर की हो जाती है तब उस से उत्पन्न बच्चे भी उसी खानदान के वारिस कहलाते हैं। बेटी के माता पिता उन बच्चो को अपने परिवार का सदस्य भर मान सकते है पर उनसे परिवार की परंपरा आगे बढ़ने का सिलसिला ससुराल पक्ष का ही होता है।
क्यों विवाह के उपरांत एक युवती को अपने जन्मजात परिवार की पहचान त्याग कर एक नयी पहचान के साये में पनपना पड़ता है। यही से पुराने परिवार के रिश्ते - नाते फीके पड़ने लगते हैं। ऐसे अनगिनत कारणों की फेहरिस्त है जो भ्रूण हत्या के लिए जिम्मेदार हैं। कोई नहीं चाहता की बेटी पैदा हो और उसे किसी दूसरे परिवार के घर भेज कर अपने परिवार में हमेशा के लिए एक कमी बना दी जाए। क्या ये सत्य नहीं है कि बच्ची के विवाहोपरांत उसके माता पिता उसकी खैर खबर जानने के लिए बेचैन रहते होंगे। आखिर उनकी संतान है वो .... मुझे व्यक्तिगत रूप से ऐसा लगता है कि सबसे पहले ये उपनाम बदले जाने की परंपरा खत्म होनी चाहिए। उसके बाद महिला के परिवार जनों को भी उसके बच्चो को उत्तराधिकारी कहने का मौका मिलना चाहिए। आखिर दो परिवारो के संयोग से एक नयी पीढ़ी का जन्म होता है तो योगदान भी दोनों का ही गिना जाना चाहिए। खैर मुझे गर्व है कि मैं दो बच्चियों की माँ हूँ जो हमेशा मुझे गर्व करने के मौके देती रहेगी।
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