अंतहीन शब्दहीन दर्द की व्यथा ...😞

अंतहीन शब्दहीन दर्द की व्यथा ..........!



कुछ नहीं बदलेगा और कभी भी नहीं बदलेगा क्योंकि हमारे प्रयास ही खोखले हैं। हमने जो भी प्रयास किये हैं वह महिलाओं के प्रति संवेदना रखकर किये हैं। हमने उन्हें कभी भी उस अधिकार के तहत स्थान नहीं प्रदान किया जिस की वो हक़दार थी। यहाँ तक की एक संयत व्यवहार के लिए भी एक महिला पुरुष के आगे प्राथमिक नहीं समझी जाती। एक तकलीफ भरे जीवन के अंत से ही इस विचार का जन्म होता है। स्त्री जिसे परमात्मा ने सृष्टि के सृजनकर्ता के रूप में ईश्वरीय वरदान से नवाजा है। वही अपने इस वरदान की बंदी बनी जीवन भर पुरुष से डर डर कर जीती रहेगी ।  
     1 जनवरी 1948  को एक ब्राह्मण परिवार के हल्दीपुर कर्नाटक में अरुणा रामचन्द्र शानबाग भी गर्व से एक महिला के रूप में जन्मी।  उसने युवावस्था में आ कर अपने व्यवसाय के रूप में सेवा से जुड़े नर्सिंग कार्य  को चुना और मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल अस्पताल में कार्यरत हो गयी। उसी अस्पताल में कार्यरत एक डॉक्टर से उनका विवाह भी निश्चित हो गया था और यकीनन एक सुखी और खशनुमा भविष्य के सपने के साथ जीवन आगे बढ़ने लगा था कि अचानक...................  27 नवंबर 1973 को एक सफाई कर्मी सोहनलाल ने उनके हर सपने का खून कर दिया। रात जब वह अपनी ड्यूटी खत्म करने के बाद बेसमेंट में अपनी यूनिफार्म बदलने गयी वहां पर पहले से घात लगाये सोहनलाल ने कुत्ते को बांधने वाली चेन से उनका गला दबा दिया जिस से वह बेहोश हो गयी।  फिर उनके साथ वीभत्स रूप से बलात्कार किया। उस चेन से गले के दबने से दिमाग को खून पहुँचने वाली नस दब गयी और जिस के कारण उन्हें अन्धता , न्यूरोलॉजिकल विकार , तथा आंशिक पक्षाघात हो गया। रात भर वो वही पड़ी रही सुबह 7. 30 बजे किसी दूसरे कर्मचारी ने  उन्हें देखा तब उनका इलाज प्रारम्भ हुआ। कुछ सामाजिक डर से और कुछ अस्पताल की बदनामी के कारण सोहनलाल को अरुणा के पहने गए सोने के चोरी का और हत्या के प्रयास का आरोपी बना कर सिर्फ सात साल की सजा दिलवाई गयी। अरुणा उसी अस्पताल के एक कमरे में बतौर पीड़ित भर्ती हो गयी। पुरे 42 साल अस्पताल के एक बिस्तर पर असहाय अरुणा ने किस दयनीयता के साथ ये वक्त काटा होगा ये सब ने देखा और महसूस किया। हालांकि 24 जनवरी 2011 को उनकी वकील ने उनकी बद्तर होती स्थिति देखकर दया मृत्यु या इच्छामृत्यु की गुहार लगाई थी।  जिसे अदालत ने ख़ारिज कर दिया।  जबकि सभी डॉक्टर उनके कभी भी सामान्य न होने की पुष्टि कर चुके थे। फिर भी उन्हें दया का पात्र  नहीं समझा गया। 42 साल का लम्बा अरसा अपने स्त्री होने की तकलीफ के कारण और सहनशीलता की परीक्षा लिए जाने के बावजूद उन्होंने बिस्तर पर असहाय होकर काटा। जबकि सभी अपनी जिंदगी में वापस शामिल हो गए उस डॉक्टर ने शादी कर ली।  सोहनलाल ने जेल से बाहर आकर नाम बदल कर दिल्ली अस्पताल में नौकरी कर ली। एक ऐसी घटना जिसे सुन कर पढ़ कर औरत होने पर शर्मिंदगी होने लगती है। सच है हम शर्मिंदा है कि हम हिंदुस्तान में औरत के रूप में जन्मे है।  जहाँ आज भी हमारे वजूद को अहमियत अपनी शारीरिक-सामाजिक जरूरत पूरी करने के लिए दी जाती है। 
          ऐसी घटनाओं के उदाहरण रोजमर्रा की स्थिति से भी दिया जा सकता है।  हमारे एक परिचित के घर रसोई बिलकुल बंद सी बनी है जिसमें कोई भी खिड़की या रोशनदान नहीं है।  मैंने कई बार पूछा कि ऐसे घुटन भरे माहौल में आप काम कैसे करती है तो महिला ने कहा की आदत हो गयी है।अब उनके घर में ऊपर छत  पर एक नए कमरे का निर्माण हो रहा है मैंने उसी के पास रसोई बनाने का और खूब बड़ी सी खिड़की खुलवाने का सुझाव दिया। जिसे उनके घर के पुरुषों ने ख़ारिज कर दिया और कहा कि बेटे के विवाह के लिए नया कमरा आवश्यक है न की रसोई के लिए नयी जगह। अजीब विडम्बना है कि रोज नये नए व्यंजनों की फरमाइश करने वाले पुरुष कभी भी रसोई के धुंए की घुटन नहीं समझ पाएंगे। छौंक और धुंए से भरी रसोई कितनी गर्मी और तकलीफ देती है इस से उन्हें कोई सरोकार नहीं।  उन्हें सिर्फ परसी परसाई थाली चाहिए जिस से उनकी भूख शांत हो। आखिर कब तक स्त्री इसी तरह पुरुष के आगे दबती रहेगी।  और जिन मसलों पर उसकी राय लिया जाना आवश्यक है उन्हें भी पुरुष अपने दबदबे से निभाते रहंगे ............. 

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