एक लड़की का सच .............! 

मैं एक लड़की हूँ। 
तभी तो ये होता है कि 
डरता है मन, फिर भी मचलता है। 
जीवन जीने को उछलता है ,
हर सच को स्वीकारता है,  
फिर भी झूठ में जीने की 
बचकानी चपलता है। 
दिन संशय में बीतता है और ,
रात की आवारगी को तरसता है। 
 सभ्य समाज के नकारा लोगों की ,
 वहशियत को समझता है। 
फिर भी उन्हें लोगों के बीच।  
वजूद की तलाश में भटकता है। 
सब की नज़रों में अपने लिये ,
एक मुकाम की तलाश करता है। 
जिस में जीवन की सारी खुशियां,
का हिस्सा बनने की व्याकुलता है।  
सुन सको ,समझ सको तो 
बेहतर है.........ऐ मर्द ,
कि एक औरत का अस्तित्व को नहीं। 
 बल्कि तुम्हारी साँसों की डोर को भी ,
हमारी कोख की ही निर्भरता है। 






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