वैवाहिक वादों का पुनरुत्थान .................!
बदलाव और क्रांति में बस यही अंतर है कि क्रांति एक बड़े झोंके की तरह आती है जबकि बदलाव खामोश पैरों से चलता हुआ मनों में बैठा रहता है। जो सहारा न मिलने पर क्रांति के रूप में फूट पड़ता है। एक ऐसा ही बदलाव दिख रहा है जिसकी आवाज नहीं सुनी गयी तो वह भी क्रांति की तरह अपना सर उठाएगा। एक मैट्रिमोनियल साइट द्वारा कराये गए एक वृहद् सर्वे में एक नया विचार सामने आया है जिसे आज तक न तो सोचा गया न ही आजमाया गया। उस के अनुसार विवाह के दौरान जो भी कसमें खाई जाती हैं वह आज के सन्दर्भ में बेमानी है इस लिए अब जो भी कसम खायी जानी चाहिए वह युवती खुद निर्धारित करेगी। पुरुष या समाज के दूसरे लोग जैसे धर्म के तथाकथित ठेकेदार ये क्यों तय करें कि युवतियों द्वारा इस तरह की तमाम कसमों की पालना होनी चाहिए। इस सर्वे में विवाहयोग्य 65% से -70 % युवतियों ने इन नयी कसमों के बारे में चर्चा की। जिसमें प्रमुख हैं -
* अपने माता पिता के प्रति कर्तव्यों की जिम्मेदारी का भरण।
* अपने सपनों को पूरा करने की आजादी।
* अपनी एक पहचान बनाने और रखने की स्वतंत्रता।
* विवाहोपरांत अपना उपनाम न बदलने की चाहत।
* पति से ये अपेक्षा कि वह कभी भी पत्नी की तुलना अपनी माँ से न करे।
* दोनों ही माता पिताओं को एक दूसरे द्वारा सम्मान और आदर दिया जाना।
ये कुछ नयी कसमें है जो अब तथाकथित पंडितों को भी स्वीकार्य करनी पड़ेगी। क्योंकि जीवन उस नए जोड़े को ही जीना है और वचन वो ही लें चाहिए जिनसे आगे का जीवन प्रभावित होता है। आज से कई दशक पहले जो भी कसमें थी वह दोनों को कई सामाजिक बंधनों में बांधे रखती थी। जिन बंधनों के कारण कई औरतें अपना दुःख अपनी तकलीफ जगजाहिर होने से डरती थी जो की एक घेरलू हिंसा में बदल जाता था जिस का परिणाम बुरा ही होता था। स्वतंत्रता एक जीवन की प्रमिकताओं में शुमार है। चाहे वो परिंदा हो पशु हो जीवजंतु हो या इंसान , सभी एक हद तक परतंत्रता में जी सकते हैं बाद में उन्हें भी स्वतंत्र हो के खुल कर सांस लेने की चाहत होने लगती है। ये एक जैवकीय गुण है।
इस लिए विवाह से जुड़े तमाम वादों और शर्तों का पुनुरुत्थान करना आवश्यक है। ताकि जिंदगी को समय के साथ एक नए सिरे से जिया जा सके। एक दूसरे को बेहतर समझने से विवाह सुचारू रूप से प्रेम से निभाया जा सकता है।
बदलाव और क्रांति में बस यही अंतर है कि क्रांति एक बड़े झोंके की तरह आती है जबकि बदलाव खामोश पैरों से चलता हुआ मनों में बैठा रहता है। जो सहारा न मिलने पर क्रांति के रूप में फूट पड़ता है। एक ऐसा ही बदलाव दिख रहा है जिसकी आवाज नहीं सुनी गयी तो वह भी क्रांति की तरह अपना सर उठाएगा। एक मैट्रिमोनियल साइट द्वारा कराये गए एक वृहद् सर्वे में एक नया विचार सामने आया है जिसे आज तक न तो सोचा गया न ही आजमाया गया। उस के अनुसार विवाह के दौरान जो भी कसमें खाई जाती हैं वह आज के सन्दर्भ में बेमानी है इस लिए अब जो भी कसम खायी जानी चाहिए वह युवती खुद निर्धारित करेगी। पुरुष या समाज के दूसरे लोग जैसे धर्म के तथाकथित ठेकेदार ये क्यों तय करें कि युवतियों द्वारा इस तरह की तमाम कसमों की पालना होनी चाहिए। इस सर्वे में विवाहयोग्य 65% से -70 % युवतियों ने इन नयी कसमों के बारे में चर्चा की। जिसमें प्रमुख हैं -
* अपने माता पिता के प्रति कर्तव्यों की जिम्मेदारी का भरण।
* अपने सपनों को पूरा करने की आजादी।
* अपनी एक पहचान बनाने और रखने की स्वतंत्रता।
* विवाहोपरांत अपना उपनाम न बदलने की चाहत।
* पति से ये अपेक्षा कि वह कभी भी पत्नी की तुलना अपनी माँ से न करे।
* दोनों ही माता पिताओं को एक दूसरे द्वारा सम्मान और आदर दिया जाना।
ये कुछ नयी कसमें है जो अब तथाकथित पंडितों को भी स्वीकार्य करनी पड़ेगी। क्योंकि जीवन उस नए जोड़े को ही जीना है और वचन वो ही लें चाहिए जिनसे आगे का जीवन प्रभावित होता है। आज से कई दशक पहले जो भी कसमें थी वह दोनों को कई सामाजिक बंधनों में बांधे रखती थी। जिन बंधनों के कारण कई औरतें अपना दुःख अपनी तकलीफ जगजाहिर होने से डरती थी जो की एक घेरलू हिंसा में बदल जाता था जिस का परिणाम बुरा ही होता था। स्वतंत्रता एक जीवन की प्रमिकताओं में शुमार है। चाहे वो परिंदा हो पशु हो जीवजंतु हो या इंसान , सभी एक हद तक परतंत्रता में जी सकते हैं बाद में उन्हें भी स्वतंत्र हो के खुल कर सांस लेने की चाहत होने लगती है। ये एक जैवकीय गुण है।
इस लिए विवाह से जुड़े तमाम वादों और शर्तों का पुनुरुत्थान करना आवश्यक है। ताकि जिंदगी को समय के साथ एक नए सिरे से जिया जा सके। एक दूसरे को बेहतर समझने से विवाह सुचारू रूप से प्रेम से निभाया जा सकता है।
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