अण्डाणु की मोहताजी पर प्रश्न . . . . . . . . . . . . !
अपनी रचना पर प्रश्न उठा ,
ईश्वर ने सोचा फिर से एक बार।
हव्वा के साथ आदम की ,
जरूरत से यूँ किया इंकार।
क्यों ये नहीं विचारा कि ,
ये टीस बन के रह जायेगा।
हर औरत के जीवन को ,
नासूर बन कर खायेगा।
हव्वा के बूते क्यों न दिया,
जग को चलाने का भार।
वह अकेली ही काफी थी ,
इस संसार की पालनहार।
क्यों अंडाणु को कमजोर किया ,
और शुक्राणु का मोहताज।
सिर्फ कोख की रचना से ही तो,
सुलझ सकते थे ये राज।
इतने गुण समाहित कर दिए,
तो ये भी कर देते दाता।
कि अंडाणु अकेले ही अपने दम पर ,
एक जीवन को धरती पर लाता।
इस मोहताजी के भार ने ,
हर स्त्री को लाचार किया।
वहीं आदम ने वासना को ,
सरेआम बाज़ार किया।
एक हक़ को बदल दिया तूने ,
विवशता और बेचारगी में।
जबकि आदम की जुनूनियत अब,
बदल गयी है आवारगी में।
अपनी उपस्थिति को ताकत बना,
हर आदम ने व्यापार किया।
हव्वा को बेबस बना-बनाकर ,
दबाया और लाचार किया।
क्या अब भी कोई गुंजाईश है ,
इस गलती को सुधारने की।
ऐ खुदा सोच अब फिर से तू ,
तरकीब स्त्री को संवारने की।
अपनी रचना पर प्रश्न उठा ,
ईश्वर ने सोचा फिर से एक बार।
हव्वा के साथ आदम की ,
जरूरत से यूँ किया इंकार।
क्यों ये नहीं विचारा कि ,
ये टीस बन के रह जायेगा।
हर औरत के जीवन को ,
नासूर बन कर खायेगा।
हव्वा के बूते क्यों न दिया,
जग को चलाने का भार।
वह अकेली ही काफी थी ,
इस संसार की पालनहार।
क्यों अंडाणु को कमजोर किया ,
और शुक्राणु का मोहताज।
सिर्फ कोख की रचना से ही तो,
सुलझ सकते थे ये राज।
इतने गुण समाहित कर दिए,
तो ये भी कर देते दाता।
कि अंडाणु अकेले ही अपने दम पर ,
एक जीवन को धरती पर लाता।
इस मोहताजी के भार ने ,
हर स्त्री को लाचार किया।
वहीं आदम ने वासना को ,
सरेआम बाज़ार किया।
एक हक़ को बदल दिया तूने ,
विवशता और बेचारगी में।
जबकि आदम की जुनूनियत अब,
बदल गयी है आवारगी में।
अपनी उपस्थिति को ताकत बना,
हर आदम ने व्यापार किया।
हव्वा को बेबस बना-बनाकर ,
दबाया और लाचार किया।
क्या अब भी कोई गुंजाईश है ,
इस गलती को सुधारने की।
ऐ खुदा सोच अब फिर से तू ,
तरकीब स्त्री को संवारने की।
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