बसंत का स्वागत ...... !
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काँधे तक कम्बल सरका कर , सर से सर्दी भागी रे, 
तब थोड़ी सी राहत आयी जब बसंत ऋतू जागी रे। 
        सूरज करने लगा ठिठोली ,लगा ठहरने कुछ ज्यादा ,
        चंदा भी जल्दी घर जाने की लांघ रहा है मर्यादा। 
तारों ने भी शुक्र मनाया ,घटी जो पहरेदारी है ,
खींचा तानी में दिन जीता ,रात बेचारी हारी है। 
       पीले पीले फूल खिलें हैं सरसों ने ली है अंगड़ाई ,
       हल चल भई बाग़ के भीतर , अमवा ने ली बौराई। 
फागुन खड़ा द्वार के बाहर ,राग मल्हार अलापे है,
कोयल पपीहा बार बार घर आँगन में झांकें हैं। 
     गोरी का मनवा अति हर्षित ,मन ही मन मुस्काएं है। 
     घर सावरिया आ जाये तो मन मुराद मिल जाए है। 
कहे संगिनी मैं भी अपने दिल का हाल सुनाऊ ,
जो बसंत पर पिया माने तो पीहर तक हो आऊं ।    
      मिल कर अपने बंधूजनों से ,अपनेपन में तर हो जाऊं ,
      इस बसंत में रिश्तों को नए प्रेम सूत्र में पिरों आऊं। 

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