वजहें जिंदगी से महत्वपूर्ण नहीं
वजहें जिंदगी से महत्वपूर्ण नहीं..!•••••••••••••••••••••••••••••
वजह चाहे जो भी हो पर जिंदगी खत्म कर लेना बहुत बचकाना निर्णय लगता है...... लेख की शुरुआत इस पंक्ति से इस लिए कर रही कि आंखों देखी घटना में ये समझने की कोशिश है कि आख़िर वजहें जीने से ज्यादा महत्वपूर्ण क्यों हो जाती हैं ? ? मैं जिस बिल्डिंग में रहती हूं। उसी के एक परिवार के मुखिया यानी पिता का कोरोना से देहांत हो गया। परिवार में बाकी सदस्य थे बेटा बहू उनके दो छोटे बच्चे और मुखिया की पत्नी। दुःख भीषण था क्योंकि किसी का जाना परिवार में वो जगह खाली कर जाता है जो कोई अन्य सदस्य नहीं भर सकता। लेकिन पिता की मृत्यु के एक माह पश्चात ही एक सुबह उनके मात्र 29 वर्षीय एकलौते बेटे ने बाथरूम में घुस कर ज़हर खा कर आत्महत्या कर ली। अब परिवार में सिर्फ दो महिलाएं और 5 वर्ष से छोटे दो बच्चे बचे। सब इस तरह सदमें में है कि उन्हें आगे के जीवन का रास्ता नहीं सूझ रहा। अब सोचने का विषय ये है कि उस लड़के को पता था कि मैं ही परिवार का सहारा हूँ। मेरी माँ , पत्नी और छोटे बच्चे मेरी जिम्मेदारी हैं। फ़िर किन हालातों से वो हारा....जीवन एक समान तो चलता नहीं है। ऊंच नीच और नरम गर्म सब आता रहता है। ख़ुद इस तरह पलायन करते समय क्या मन में एक बार भी ये विचार नहीं आया होगा। कि मेरे बाद ये लोग सड़क पर आ जाएंगे। काम नहीं तो धन नहीं , धन नहीं तो जीवन नहीं .... फ़िर उन छोटे बच्चों का क्या दोष जिन्होंने इस घर में जन्म लेकर अपने भाग्य में पिता विहीन दुर्दिन का लेखा जोखा लिखवा लिया। उस युवक पर तरस नहीं क्रोध आता है कि खुद को बाहरी समस्याओं से बचाने के लिए उसने घर के लोगों को नर्क दिखाने का बंदोबस्त कर दिया। ये सत्य अनदेखा नहीं किया जा सकता कि पिता की मृत्यु के बाद उसके काम का बोझ बढ़ गया होगा। पर जब सामाजिक प्राणी बन कर रिश्ते जोड़ और निभा रहे हो तो जिम्मेदारियां तो आएंगी। फ़िर पूरी उम्र पड़ी थी आज स्थिति प्रतिकूल है तो परिवार में सहयोग और सामंजस्य से सम्भल भी सकती थी। ये तो सरासर स्वार्थ हुआ कि खुद बदहाली से पलायन कर लिया और बाकियों को गर्त में छोड़ दिया। इस घटना से ये सबक लेना चाहिए कि प्रतिकूल परिस्थिति में पहले अपने से जुड़े लोगों के बारे में सोचें तो उस स्थिति से लड़ने का हौसला मिल जाएगा। क्योंकि जब भी अकेले लड़ने की तैयारी की जाएगी। जल्दी थकान महसूस होगी।
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