खुद से बातें करने की व्यवहारिकता

 खुद से बातें करने की व्यवहारिकता ..........!!        •••••••••••••••••••••••••••••  सामान्यतः व्यवहार में चिड़चिड़ाहट तभी रहेगी जब हर तरफ मनमाफ़िक़ देखने को नहीं मिलता और ये तब होता है जब हम हर चीज़ में नकारात्मकता पाने लगते हैं । ये नज़रिया ना तो रातों रात बनता है ना ही खत्म होता है। इसे हम सोच से, समझ से और स्थितियां उत्पन्न करके बनाते है। मुश्किलों को नज़रंदाज़ करके ये सोचें कि नकारात्मकता हट गई तो ऐसे सकारात्मक    नहीं हो सकते।      

उसके लिए कुछ प्रयास आवश्यक हैं.....

1 : सबसे पहले तो स्वयं को परखने के लिए थोड़ा ब्रेक दिया जाए। अपना अवलोकन करके विचारों की दिशा को परख कर उनका सिरा पकड़ने की कोशिश की जाए। तो उनके बदलाव और गति पर नियंत्रण रखा जा सकता है।

2 : नकारात्मकता एक बोझ की तरह होती है। उसे खुद पर ना ढोया जाए। खुली हवा में, अच्छी संगत में और छोटी छोटी चीजों में हंसने मुस्कुराने की वजह ढूंढी जाए।

3 : अपनी सोच को धैर्य से समझने की कोशिश करते हुए बदलाव के क्षेत्र को पकड़ने की कोशिश की जाए। हर एक बिंदु पर अलग अलग फोकस करके उससे निपटा जा सकता है। सभी का उपचार एक साथ सम्भव नहीं।

4 : संगति बहुत प्रभावकारी होती है। इसलिए अच्छी संगति में रहने की कोशिश की जाए। जो सुझाव और कोशिश से तनाव दूर करें। 

उदाहरण - हम जब भी कभी किसी से अपनी तकलीफ या दुःख शेयर करें तो अगर वह उसे सुलझाने का प्रयास करें तो वह अच्छी संगति है पर यदि वह उसमें अपने अतीत की परिस्थितियों को जोड़ कर उसे बढ़ाये यह कहे कि सही है ऐसे ही होता है तो ऐसे में हमारी घटना की नकारात्मकता सौ गुना और बढ़ जाती है।

5 : अब सबसे महत्वपूर्ण बात कि रोज  अकेले में स्वयं से कुछ समय बातें करने की आदत डालिये। अपने व्यवहार का आंकलन बोल कर करिये की क्या ये मैनें ठीक सोचा या किया। बोल कर की गई गलती या खुशी का अहसास ज़्यादा और गहरा होगा। 

      एक नियम बना लें । रोज़ खुद से ऐसी कोई चीज़ कहना शुरू करें जो दूसरों से नहीं कहेंगे। उस परिस्थिति में स्वयं के लिए नरमी रखें। नकारत्मकता का सबसे बुरा पहलू ये है कि इसमें लोग स्वयं के प्रति निष्ठुर हो जाते हैं। खुद से बातें करने से आदतों में त्वरित बदलाव महसूस किया जा सकता है। इसलिए स्वयं से बातें करना पागलपन की नहीं बल्कि सुधार की ओर एक कदम है। अपनाइए क्योंकि जिंदगी बचाई और बदली जा सकती है। 

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