
जो तुमको हो पसंद वही बात करेंगे ,
तुम दिन को अगर रात कहो रात कहेंगे.....................!
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यदि हम सभी ये बात मानते हैं कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है। यहाँ सभी को अपनी बात कहने और करने की स्वतंत्रता है। तो फिर सभी को एक दूसरे की बात का भी सम्मान करना चाहिए। हो सकता है कि विचार अलग अलग हों पर उन्ही विचारों से कुछ नयी विचारधारणाओं का जन्म भी होता हैं। कोई भी स्वयं में संपूर्ण नहीं है ये तो हम सभी जानते हैं। फिर सब की सुन कर यदि एक निष्कर्ष निकला जायेगा तो संभवतः वह एक अच्छी युक्ति होगी। यह समझना सभी के लिए जरूरी है कि खुद को हमेशा सही मान कर हम ने भी जीवन में कई बार पटखनी खाई होगी। तब ये अहसास भी हुआ होगा कि काश इस वक्त उस दूसरे का कहा मान लिया होता। खैर अब पछताए क्या होत जब चिड़िया चुग गयी खेत। आज समाज में जो विचारों का द्वन्द दिखाई दे रहा है वह बहुत अच्छा नहीं है। क्योंकि ये द्वन्द अब सिर्फ वाक्युद्ध के रूप में नहीं होता बल्कि इस द्वन्द को निष्कर्ष तक फलीभूत करने के लिए व्यक्ति एक दूसरे के जीवन को समाप्त करने की भी ख्वाहिश रखने लगा है। ऐसा इसलिए है क्योकि दोनों जानते हैं कि उनमे से कोई भी अपनी विचारधारा पर पुनर्विचार नहीं करेगा। जो मान लिया सो मान लिया। उसमें अच्छा या बुरा सोचने की कोई गुंजाईश नहीं।
यह एक भूमिका है उस घटना की जो आज समाज के मुख पर कालिख पोत रही है। पत्रकार गौरी लंकेश नामक महिला को उनके घर में विगत 5 सितम्बर को कुछ युवकों ने गोलियों से छलनी कर दिया गया। 29 जनवरी 1962 को जन्मी गौरी लंकेश कई वर्षों से लंकेश पत्रिके नाम की पत्रिका निकाल रही थी। बेबाक और निर्भीक महिला जो अपने विचारों को अपनी पत्रिका के माध्यम से सभी लोगों तक पहुँचती रहती थी। निर्भीक इस लिए कह रही हूँ कि स्वतंत्र समाज में अपनी बात कहने का सभी को हक़ है इस के बावजूद एक डर जो लोगों को निर्भीकता से रोकता है वह है ,दूसरे द्वारा क्षति पहुचाये जाने का। जो इस डर के बावजूद अपनी बात मजबूती से सामने रख सके वह निर्भीक ही होगा। खैर मुद्दा ये नहीं है कि निर्भीकत पर बहस हो , असल मुद्दा ये है कि आज क्यों एक दूसरे के विचारों की स्वतंत्रता को इस तरह खामोश किया जा रहा है ? क्या उसे हम अपने विचारों के वाक्युद्ध से नहीं परास्त कर सकते ? क्या उस के लिए उस के प्राण लिया जाना आवश्यक है ? इस घटना को बहुतों द्वारा एक राजनतिक षणयंत्र माना जा रहा है। तो क्या आज राजनीति इस कदर गिर चुकी है कि कोई यदि विरोध के स्वर उठाये तो उसे कुचल कर ख़त्म कर देने के अलावा कोई उपाय कारगर नहीं दीखता। ऐसे में ये मीडिया या पत्रकारिता की क्या आवश्यकता ? यदि ये भी बिकाऊ ही हो गए है जो सिर्फ खुद का अस्तित्व बनाये रखने के लिए सिर्फ वही बोलेंगे जिस के लिए इन्हे अभयदान दिया जा रहा है। तो इनकी उपस्थिति पर सवालिया निशान लगाया जा सकता है। आज वो ही न्यूज़ चैनल बुलंदी को छू रहा है जो सत्ताधीन राजनीतिक दल के प्रभाव के कारण उसका महिमा मंडन करते हुए समाचारों को मसालेदार बना कर पेश कर रहा है। यह क्या है समझ नहीं आया ?
क्या वाकई आज अपनी बात को कहने और दूसरे को समझाने से पहले अपनी जान की सलामती के बारे में सोचा जाना आवश्यक हो गया है ? अगर ऐसा ही रहा तो काहे की स्वतंत्रता , कौन सा लोकतंत्र और किस तरह की आजादी ..... इस लिए अब अगर जिन्दा रहना चाहते हो तो ये जुमला अपना लो की , जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगे , तुम दिन को अगर रात कहो रात कहेंगे। ये हर जगह के लिए वाजिब है क्योंकि कोई भी जिसे आप की बात में विरोधाभास दिखा और यदि वह विरोधाभास दूसरों के विचारों को बदलने में सक्षम हो सकता है तो ऐसे में आप की आवाज को हमेशा खामोश किया जा सकता है। ये एक आसान और सुरक्षित तरीका है। सुरक्षित इस लिए कि कानूनी प्रक्रिया की खामियां उसके लिया अभयदान बन कर पहले ही खड़ी हैं। .............
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