औरत बनकर लड़के के जन्म की असलियत जाने ....... !
पिछले ही लेख में मैंने दो व्यथित करने वाली घटनाओं का जिक्र इस उम्मीद से किया कि मेरे लिखने और आप के पढ़ने से कही ज्यादा हमारी सोच को एक नए सिरे से तराशने की आवश्यकता है। वो सोच जो दोगली न हो। जो एक तरफ तो सभी से ये बड़ी बड़ी बातें ना बुलवाये कि बेटा-बेटी एक समान और फिर समान बनाने के चक्कर में उसी बेटी की सुरक्षा दावँ पर लगाएं। आखिर क्यों हम एक बेटी को आगे बढ़ाने और बाहर निकलने पर आमादा हैं। जबकि मैं और आप की अंतरआत्मा ये अच्छे से समझती और जानती है कि ऐसा कर के हम उसके सर पर खतरे की घंटी बजा रहें हैं। इस का एक मात्र कारण है बाहर की गन्दी सोच। जो घर ,उसके आसपास , कामकाज की जगह , रास्ते , या फिर कही भी जहाँ वह खुल के रहना चाहती हो ,वहां सब जगह मौजूद है।
इस नए वर्ष में समाचारों में एक अनुभाग रोजाना ही प्रकाशित हो रहा है जिसमें महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और छेड़छाड़ जैसी घटनाओं को तरजीह दी जा रही है। रोज वही सब देख कर तकलीफ बढ़ती ही जा रही है। क्योंकि कही न कहीं ये अहसास गहरा रहा है कि स्थिति बद से बद्तर हो रही है। अब खुलेआम अपनी वहशियत को अंजाम देने का जूनून इस कद्र है कि डर ,चाहे वह समाज का हो ,पुलिस का हो ,या अपने परिवार का सब खत्म हो गया है। अब सिर्फ एक ही घृणित भावना पुरजोर आज़मा रही है वह है पनपती इच्छा को किसी भी हाल में पूरी करने की प्रचंडता। क्या इसी बुते पर सरकार भ्रूण जांच न करवा कर बेटी पैदा करने पर जोर देती रहती है कि हम अपनी बेटियों को इन भूखे गीदड़ों के आगे नोचे खसोटे जाने के लिए छोड़ दें। आखिर सोचें कि हम कहाँ कहाँ अपनी बेटियों के साथ जा सकतें हैं। स्कूल ,कॉलेज , बाजार वह कही तो अकेले जायेंगी तब क्या हम उनकी सलामती के प्रति आश्वस्त हो पाएंगे। इसीलिए आज बेटी पैदा होने पर लोग दुःख मनाते हैं। क्योंकि वह जानते है कि अब जीवन पर्यन्त उसकी सलामती के लिए सजग होकर जीना पड़ेगा। अन्यथा उसे सामने लूटते हुए या मरते हुए देखो।
मेरी भी दो बेटियां हैं मैंने कभी भी ईश्वर से इसका जवाब नहीं माँगा। सोचा कि क्या फर्क पड़ता है अच्छे से पढ़ लिख कर ये भी बेटों के समान मेरा और अपना भविष्य संभालेंगी। पर आज का क्या ? आज उनके वर्तमान को सँभालने के लिए हमें हर जगह उनका साथ देना पड़ता है। अकेले न रहने की कसम दिलानी पड़ती हैं। देर रात बाहर न रहने के लिए डाँटना पड़ता है। लड़कों से दूर रहने का वादा लेना पड़ता है। किसी पर भी यूँ ही विश्वास न कर लेने के लिए समझाना पड़ता है। अपनी सलामती के लिए हमारी मानने के लिए बाध्य करना पड़ता है। अब देखें कि उनके जन्म के ही साथ कितने तरह के समझौते जिंदगी के साथ जुड़ गए। शायद यही कारण है कि आज भी लोग बेटियों का जन्म एक उत्सव के रूप में नहीं मनाते। जबकि ये बेटे जो आगे चलकर किसी की भी बेटी को नोच खसोट सकते है उनके जन्म की खबर अस्पताल के गलियारें में टहल टहल कर ईश्वर से मनाई जाती हैं। क्या कभी वह दिन आएगा जब एक लड़के के जन्म पर माँ एक औरत बन कर सोचेगी और ख़ुशी के बजाये दुखी होगी कि उसने समाज में एक और दरिंदे को जन्म देने का पाप किया है। जो सकता है कि अपनी बहन समान किसी बेटी को .........?
पिछले ही लेख में मैंने दो व्यथित करने वाली घटनाओं का जिक्र इस उम्मीद से किया कि मेरे लिखने और आप के पढ़ने से कही ज्यादा हमारी सोच को एक नए सिरे से तराशने की आवश्यकता है। वो सोच जो दोगली न हो। जो एक तरफ तो सभी से ये बड़ी बड़ी बातें ना बुलवाये कि बेटा-बेटी एक समान और फिर समान बनाने के चक्कर में उसी बेटी की सुरक्षा दावँ पर लगाएं। आखिर क्यों हम एक बेटी को आगे बढ़ाने और बाहर निकलने पर आमादा हैं। जबकि मैं और आप की अंतरआत्मा ये अच्छे से समझती और जानती है कि ऐसा कर के हम उसके सर पर खतरे की घंटी बजा रहें हैं। इस का एक मात्र कारण है बाहर की गन्दी सोच। जो घर ,उसके आसपास , कामकाज की जगह , रास्ते , या फिर कही भी जहाँ वह खुल के रहना चाहती हो ,वहां सब जगह मौजूद है।
इस नए वर्ष में समाचारों में एक अनुभाग रोजाना ही प्रकाशित हो रहा है जिसमें महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार और छेड़छाड़ जैसी घटनाओं को तरजीह दी जा रही है। रोज वही सब देख कर तकलीफ बढ़ती ही जा रही है। क्योंकि कही न कहीं ये अहसास गहरा रहा है कि स्थिति बद से बद्तर हो रही है। अब खुलेआम अपनी वहशियत को अंजाम देने का जूनून इस कद्र है कि डर ,चाहे वह समाज का हो ,पुलिस का हो ,या अपने परिवार का सब खत्म हो गया है। अब सिर्फ एक ही घृणित भावना पुरजोर आज़मा रही है वह है पनपती इच्छा को किसी भी हाल में पूरी करने की प्रचंडता। क्या इसी बुते पर सरकार भ्रूण जांच न करवा कर बेटी पैदा करने पर जोर देती रहती है कि हम अपनी बेटियों को इन भूखे गीदड़ों के आगे नोचे खसोटे जाने के लिए छोड़ दें। आखिर सोचें कि हम कहाँ कहाँ अपनी बेटियों के साथ जा सकतें हैं। स्कूल ,कॉलेज , बाजार वह कही तो अकेले जायेंगी तब क्या हम उनकी सलामती के प्रति आश्वस्त हो पाएंगे। इसीलिए आज बेटी पैदा होने पर लोग दुःख मनाते हैं। क्योंकि वह जानते है कि अब जीवन पर्यन्त उसकी सलामती के लिए सजग होकर जीना पड़ेगा। अन्यथा उसे सामने लूटते हुए या मरते हुए देखो।
मेरी भी दो बेटियां हैं मैंने कभी भी ईश्वर से इसका जवाब नहीं माँगा। सोचा कि क्या फर्क पड़ता है अच्छे से पढ़ लिख कर ये भी बेटों के समान मेरा और अपना भविष्य संभालेंगी। पर आज का क्या ? आज उनके वर्तमान को सँभालने के लिए हमें हर जगह उनका साथ देना पड़ता है। अकेले न रहने की कसम दिलानी पड़ती हैं। देर रात बाहर न रहने के लिए डाँटना पड़ता है। लड़कों से दूर रहने का वादा लेना पड़ता है। किसी पर भी यूँ ही विश्वास न कर लेने के लिए समझाना पड़ता है। अपनी सलामती के लिए हमारी मानने के लिए बाध्य करना पड़ता है। अब देखें कि उनके जन्म के ही साथ कितने तरह के समझौते जिंदगी के साथ जुड़ गए। शायद यही कारण है कि आज भी लोग बेटियों का जन्म एक उत्सव के रूप में नहीं मनाते। जबकि ये बेटे जो आगे चलकर किसी की भी बेटी को नोच खसोट सकते है उनके जन्म की खबर अस्पताल के गलियारें में टहल टहल कर ईश्वर से मनाई जाती हैं। क्या कभी वह दिन आएगा जब एक लड़के के जन्म पर माँ एक औरत बन कर सोचेगी और ख़ुशी के बजाये दुखी होगी कि उसने समाज में एक और दरिंदे को जन्म देने का पाप किया है। जो सकता है कि अपनी बहन समान किसी बेटी को .........?
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