नया साल , नए वादे और नयी शुरुआत।  
मैंने इस नए वर्ष में क्या सोचा आप से बाँटना चाहूंगी। कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन के लिए मैं अपने पति से हमेशा डाँट कहती हूँ।  वह हैं सत्यवादी बनना ,व्यवहारकुशल बनने के लिए कूटनीतिज्ञ न होना , व्यव्हार में पारदर्शिता रखना , और सब से बड़ी बात हर बात सब को अपना समझ के कह देना। मैंने अपने व्यवहार का विश्लेषण किया। और ये जानने की कोशिश  कोशिश की कि कहाँ मैं गलत हो जाती हूँ। इस के लिए मैं पहले आप को अपने व्यव्हार की कुछ विशेषताएं बताना चाहूंगी जो शायद आप के अंदर भी होंगी। मैं सदैव सच बोलने की कोशिश करती हूँ जिस से मुझे उस बात दुबारा बोलने के लिए याद रखने की जरूरत नहीं पड़ती। कई बार परिस्थितियां ऐसी हो जाती हैं कि कोई स्थिति हमें फिर से याद करनी पड़ती है तो सच को याद नहीं करना पड़ता वह खुद ब खुद मुख से निकल जाता हैं। दूसरे मैं कूटनीति नहीं जानती अर्थात किस को ,क्या कह कर ,कैसे खुश रखना चाहिए ये मुझे नहीं आता। मुझे जो दिखता है मैं वही बोल देती हूँ।  कई बार वह सामने वाले को बुरा भी लग जाता है।पर मैं उस समय ये नहीं सोच पाती कि इन को खुश करने के लिए वही बात मुझे किस रूप में कहनी है या बदलनी है।  तिगड़म मुझे नहीं समझ आती और इस के चलते मैं कई बार अवहेलना का शिकार बन जाती हूँ। अब तीसरा अवगुण व्यव्हार की पारदर्शिता , जो है ,जैसा है ,जब है ,सामने है। ये वाला नुस्खा अक्सर मुझे भवँर वाली परिस्थिति में डाल देता है। 
                                        अब समस्या ये है कि इन तमाम अवगुणों के साथ मैं बहुधा समाज की दोषीं बन जाती हूँ। मेरे पति मुझे ये समझाते हैं कि अगर इस कूटनीतिज्ञ समाज में खुश रहकर जीवित रहना है तो कोई गड्ढे में खुद से गिरने की सोच रहा हो तो उसकी जान बचाने के लिए मत भागो , क्योंकि हो सकता है की तुम्हारा ही प्रयास तुम्हे दोषी साबित कर दे या फिर ये सुनने को मिले कि आप अपने काम से काम रखिये। जबकि मैं स्वभावानुसार चलती गाड़ी पर किसी को मोबाइल पर बात करते हुए भी देखती हूँ तो उसे जिंदगी बचाने और दुर्घटना के बाद पीछे रोने वालों की याद दिलाने से नहीं चूकती। क्या करूँ आदत सी बन गयी है गलत के पक्ष में बोलना और सही के समर्थन में आवाज उठाना। सामने चाहे कोई अपना ही हो। जबकि यह भी जानती हूँ कि जो मेरे अनुसार गलत है वह दूसरे के अनुसार सही होता है तभी तो वह कर रहा है। पर अपनी अंतरआत्मा का क्या करूँ जो सही को ही सही मान बैठी है। राजनयिक तरीके से उस गलत को सही नहीं मानती जो सामने वाले को अच्छा लग रहा है। कैसे बदलू खुद को ? इस उम्र में जब ये सारे गुण -अवगुण रग -रग  में बस चुके हैं उन्हें दौड़ते खून से कैसे निकाल फेंकूं। हर साल ये खुद से वादा करती हूँ कि इस नए वर्ष में अब मैं व्यवहारकुशल हो कर जीने की कोशिश करूँगी।  जिस से शायद मैं भले ही खुश न रह पाऊं पर सामने वाला जरूर खुश हो और वह मुझे थोड़ा सा अच्छा समझने लगे। पर हाय रे ये आदतें ........  लत लग गयी ,सो लग गयी। 

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