उलझन ....... !!
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जिंदगी यूँ इस कदर उलझी न होती ,
गर अपनी सोच कुछ सुलझी हुए होती।
हम जीना सीख रहे ,दूसरों को देख कर ,
जब तक कारस्तानियां समझी न होती।

         नजरों का फेर समझते हुए भी देर लगी ,
         गर कटाक्ष भरी नज़र तिरछी न होती।
         मनों के अंदर यूँ ज़हर भरा हुआ होगा,
        और हर दिल पर गर्द बिछी ना होती।

विचार बदल जातें है बस एक ही क्षण में ,
घटनाएं सभी यूँ अपरिणामदर्शी नहीं होती। 
कभी तो सच झूठ की पहचान हो पाती ,
पर हाय मनों की दीवार पारदर्शी नहीं होती।  

      जिंदगी थम सी गयी है फिर भी जिए जा रहे ,
      क्योंकि खुदा के घर स्वीकार अर्ज़ी नहीं होती। 
      मन मार के भी जिन्दा बने रहने की बेचारगी ,
      घिसट कर जीने का नाम है खुदगर्ज़ी नहीं होती। 








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