छोड़ो फिर जिओ............... !!
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आज कल का जीवन बहुत कुछ छोड़ने पर निर्भर हो गया है। अर्थात जो भी पकडे हो उसे छोड़ोगे तो पहले से सब कुछ बेहतर हो जायेगा।
अब इसे उदाहारण से समझिये। बच्चा पैदा हुआ माँ के दूध पर पलने लगा। थोड़ा बड़ा होते ही सब सलाह देने लगेंगे कि अब यह बड़ा हो रहा है दूध छुड़ाओ और ऊपर का खाना देना शुरू करो। चलो हील हुज्जत करके दूध छुड़वाया गया। ऊपर की चीजें देना शुरू किया। बच्चा थोड़ा और बड़ा हुआ। जब घर से बाहर की चीजें खाना शुरू किया तब फिर से एक बार सलाह कि बाहर की गलत सलत चीज से उसे दूर करो। बच्चा थोड़ा और बड़ा हुआ। स्कूल -कॉलेज जाना शुरू किया। फिर से छोड़ने की सलाहें आना शुरू....... गलत संगत छोड़ो। विपरीत लिंग का साथ छोड़ो । आवारागर्दी छोड़ो , वगैरह वगैरह। चलो थोड़े और बड़े हुए। नौकरी , शादी और बच्चों की जिमेदारियों में फंसें। तब फिर से सलाह पैसो की फिजूलखर्ची छोड़ो। दोस्तों के साथ ज्यादा उठना बैठना छोड़ो। परिवार को समय दो । वगैरह वगैरह। फिर थोड़े और परिपक्व हुए। तब भी सलाहें , अब बड़े हो गए हो बचकानी हरकतें छोड़ो । अब बच्चे बड़े हो गए है उन्हें टोका टाकी छोड़ो। परिवार की खुशियों के लिए अपनी इच्छाएं छोड़ो। वगैरह वगैरह। चलो थोड़ा बुढ़ापा आया। फिर ये सलाह की ये चटोरापन छोड़ो। अच्छा खाने , पहनने की ख्वाहिश छोड़ो। डॉक्टर बोलेगा ,शक़्कर नमक तेल मसाले सब छोड़ो आदि आदि। फिर ज्यादा बूढ़े हुए तो सबसे पहले दखलंदाजी छोड़ो। अच्छा खाने पीने की इच्छा छोड़ो। अपने कमरे में रहो , सब पर नज़र रखना छोड़ो। अपनी राय अपने पास ही रख कर दूसरों को स्वतंत्र हो कर जीने के लिए छोड़ो। फिर जब ज्यादा ही बूढ़े हो जाओ , तब दूसरों पर बोझ बनना छोड़ो। जितनी जल्दी हो सके दुनिया छोड़ो। खुद से जुड़े लोगों को परेशान करना छोड़ो। बस हो गयी जिंदगी की इतिश्री। यही सच्चाई है जिसे हम सब जी रहें हैं।
आज के सन्दर्भ में कोई संत महतमा का भी प्रवचन सुनो तो यही सब त्याग और मोह छोड़ने की बातें सर्वोपरि रहेगी। कोई ये नहीं कहता की यह पकडे रहोगे तो कल्याण होगा। सब कुछ छोड़ ही देना है तो फिर जीना क्या ?? क्यों वह सब पहले सम्मन लायी जाती हैं आदत बनाई जाती हैं फिर छोड़ने का कह कर दबाव बनाया जाता है। जीवन त्याग का नाम है पर सब कुछ त्यागने का नहीं। हर आदत , कार्य और यवहार की एक सीमा होती है। यदि हम उसकी सीमा रेखा का आंकलन कर लें तो हमें कुछ भी त्यागने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
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आज कल का जीवन बहुत कुछ छोड़ने पर निर्भर हो गया है। अर्थात जो भी पकडे हो उसे छोड़ोगे तो पहले से सब कुछ बेहतर हो जायेगा।
अब इसे उदाहारण से समझिये। बच्चा पैदा हुआ माँ के दूध पर पलने लगा। थोड़ा बड़ा होते ही सब सलाह देने लगेंगे कि अब यह बड़ा हो रहा है दूध छुड़ाओ और ऊपर का खाना देना शुरू करो। चलो हील हुज्जत करके दूध छुड़वाया गया। ऊपर की चीजें देना शुरू किया। बच्चा थोड़ा और बड़ा हुआ। जब घर से बाहर की चीजें खाना शुरू किया तब फिर से एक बार सलाह कि बाहर की गलत सलत चीज से उसे दूर करो। बच्चा थोड़ा और बड़ा हुआ। स्कूल -कॉलेज जाना शुरू किया। फिर से छोड़ने की सलाहें आना शुरू....... गलत संगत छोड़ो। विपरीत लिंग का साथ छोड़ो । आवारागर्दी छोड़ो , वगैरह वगैरह। चलो थोड़े और बड़े हुए। नौकरी , शादी और बच्चों की जिमेदारियों में फंसें। तब फिर से सलाह पैसो की फिजूलखर्ची छोड़ो। दोस्तों के साथ ज्यादा उठना बैठना छोड़ो। परिवार को समय दो । वगैरह वगैरह। फिर थोड़े और परिपक्व हुए। तब भी सलाहें , अब बड़े हो गए हो बचकानी हरकतें छोड़ो । अब बच्चे बड़े हो गए है उन्हें टोका टाकी छोड़ो। परिवार की खुशियों के लिए अपनी इच्छाएं छोड़ो। वगैरह वगैरह। चलो थोड़ा बुढ़ापा आया। फिर ये सलाह की ये चटोरापन छोड़ो। अच्छा खाने , पहनने की ख्वाहिश छोड़ो। डॉक्टर बोलेगा ,शक़्कर नमक तेल मसाले सब छोड़ो आदि आदि। फिर ज्यादा बूढ़े हुए तो सबसे पहले दखलंदाजी छोड़ो। अच्छा खाने पीने की इच्छा छोड़ो। अपने कमरे में रहो , सब पर नज़र रखना छोड़ो। अपनी राय अपने पास ही रख कर दूसरों को स्वतंत्र हो कर जीने के लिए छोड़ो। फिर जब ज्यादा ही बूढ़े हो जाओ , तब दूसरों पर बोझ बनना छोड़ो। जितनी जल्दी हो सके दुनिया छोड़ो। खुद से जुड़े लोगों को परेशान करना छोड़ो। बस हो गयी जिंदगी की इतिश्री। यही सच्चाई है जिसे हम सब जी रहें हैं।
आज के सन्दर्भ में कोई संत महतमा का भी प्रवचन सुनो तो यही सब त्याग और मोह छोड़ने की बातें सर्वोपरि रहेगी। कोई ये नहीं कहता की यह पकडे रहोगे तो कल्याण होगा। सब कुछ छोड़ ही देना है तो फिर जीना क्या ?? क्यों वह सब पहले सम्मन लायी जाती हैं आदत बनाई जाती हैं फिर छोड़ने का कह कर दबाव बनाया जाता है। जीवन त्याग का नाम है पर सब कुछ त्यागने का नहीं। हर आदत , कार्य और यवहार की एक सीमा होती है। यदि हम उसकी सीमा रेखा का आंकलन कर लें तो हमें कुछ भी त्यागने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
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