स्व आंकलन से परिस्थति में बदलाव..................!! 
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एक किस्से से इस लेख की शरुआत करती हूँ।  महाभारत के युद्ध के बाद द्रौपदी बहुत ही दुखी थी. उसे ये व्यथा खाये जा रही थी कि परिवार के दो रिश्तों में युद्ध ने न जाने कितनी ही जिन्दगियां लील  ली।  हर तरफ शव और हाहाकार।  उसे ये सब अत्यंत द्रवित कर देने वाला महसूस हो रहा था। वह यह सब सोच कर परेशान ही थी तभी कृष्ण जी का आगमन हुआ।  द्रौपदी भाग कर उनके समीप गयी और रोते हुए उनसे कहने लगी " हे सखा यह सब क्या हो गया।  इतना रक्त ,इतने शव और इतना विलाप  यह सब मुझे पागल कर दे रहें हैं  . यह सब नहीं होना चाहिए था।  
                                                         कृष्ण जी मुस्करा के बोले हे सखा द्रौपदी जो तुम चाहती थी और जो तुम ने सोचा था वही सब तो ये हो रहा है।  इस की भूमिका भी तुमने ही बनाई है। तुमने ही इस युद्ध की आधारशिला रखी तो अब यह विलाप क्यों ?? द्रौपदी आश्चर्यचकित होकर कान्हा की और ताकने लगी और सोचने लगी कि आखिर कान्हा इन सब के लिए उसे दोषी क्यों बना रहे हैं ?? तब कान्हा जी ने उस की जिज्ञासा को शांत करने के लिए तर्क दिये।  हे द्रौपदी पहला कारण सुनो , सब से पहले तो तुमने अपने स्वयंबर में कर्ण को सूतपुत्र कहकर अपमानित न किया होता तो यह नहीं होता।  दूसरा कारण जब अर्जुन ने तुम से विवाह किया और तुम पाँच भाइयों में बांटी जाने लगी तो तुम्हारा विरोध न करना भी एक कारण बन गया।  तीसरा कारण ,  इद्रप्रस्थ के माया महल में यदि तुम दुर्योधन के फिसलने पर उस पर हँस कर उसे अंधे का पुत्र अँधा न कहती तो शायद ये न होता। चौथा कारण यदि तुम्हारे मन में वाकई अपने पाँचों पति के लिए सच्चा प्रेम होता।  क्योंकि यह छिपा नहीं कि तुम कर्ण से प्रेम करती थी पर उसकी जाति के कारण तुमने उसकी अवज्ञा की। पांचवां कारण यदि तुम्हे जुए में हारने की गलती के बाद तुम दुःशासन के रक्त से बाल धोने का वचन न लेती। छठा कारण  जुए में पांडवों की हार के बाद वनवास जाते समय तुम पांडवों के साथ जाने की जिद न करती।  जैसा की सभी चाहते थे कि तुम महल में रहों। उनके साथ रहकर तुमने हर पल अपने अपमान की उन्हें याद दिलाई जो उनके क्रोध को बढ़ाता रहा। सातवाँ कारण  था जयद्रथ का अपमान , जब जैद्रथ तुम पर बुरी नज़र रख कर तुमसे दुर्व्यवहार करने लगा तब पांडवों ने उसे उसी क्षण मृत्युदंड देने चाही पर तुमने ही उसका सर मुंडा कर पाँच पांडवों के नाम की पांच चोटियाँ सर पर  रख कर उसे आज़ाद कर देने को कहा ताकि वह स्वयं को अपमानित महसूस करता रहें। आठवां कारण तुमने भीष्म पितामह को भी जुए की सभा में सत्य और धर्म का साथ न देने के लिए व्यग्यं कसा था। 
                                               अब इस कथा के उपरान्त इसे अपने जीवन के सन्दर्भ में देखें।  हम बहुत सी घटनाओं के लिए सदैव ही परिस्थति या दूसरे को दोषी समझते हैं। जबकि उनके पीछे कहीं न कहीं हमारा भी योगदान होता है। हम समयनुसार यदि सोच समझ कर,  धैर्य से और भविष्य का आंकलन करते हुए निर्णय लें तो शायद कोई बड़ी घटना होना से रोकी जाय सके।  कभी शांत चित्त से अपनी और देखने पर हम खुद को सही समझ पाएंगे। और जीवन में बुरी घटनाओं के होने की संभावना कम हो जाएगी।  भविष्य में जो भी घटना पूर्वनिर्धारित है हम आज के व्यवहार से उसके प्रभाव का लेखा जोखा बदल सकते हैं।  इस लिए सबसे पहले स्व आंकलन करें फिर परिस्थति को दोष दें।  

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