मनुस्मृति प्रथम अध्याय-भाग 2

मनुस्मृति प्रथम अध्याय-भाग 2 (क्रमशः)

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स्त्री और पुरुष की रचना के बाद जग विस्तार हेतु विराट पुरुष ने अपने तप के प्रभाव से सर्वप्रथम मनु को जन्म दिया जिन्होंने आगे और दस महिऋषियों का प्रादुर्भाव किया । मनु महाराज द्वारा उत्पन्न दस महर्षियों के नाम हैं :—(1) मरीचि, (2) अत्रि, (3) अंगिरा, (4) पुलस्त्य, (5) पुलह, (6) क्रतु, (7) प्रचेता, (8) वसिष्ठ, (9) भृगु (10) नारद ।

            उन दस महर्षियों ने यक्षों, राक्षसों, पिशाचों, गन्धर्वों, अप्सराओं, असुरों, नागों (गजों), सर्पों, सुपर्णों (गरुड़ों) और पितरों के अनेक गणों को उत्पन्न किया। फ़िर महर्षियों ने ही विद्युत् (बिजली), वज्र, मेघों, सतरंगे इन्द्रधनुष, उल्काओं, उत्पात करने वाले पुच्छल तारों, आकाश में व्याप्त ऊपर-नीचे फैले प्रकाशपुञ्ज और अनेक तारों को जन्म दिया। दस ऋर्षियों ने ही किन्नरों, वानरों, मछलियों, अनेक प्रकार के पक्षियों, मृगों,पशुओं को उत्पन्न किया । उन ऋर्षियों ने ही कृमियों, कीटों, पतंगों, जुओं, मक्खियों, खटमलों, दंश मारने वाले मच्छरों तथा अनेक प्रकार के स्थावर—वृक्ष, लता, झाड़ तथा घास आदि—प्रदार्थों को उत्पन्न किया। इन महात्माओं ने सृष्टि की रचना करते समय कर्म, काल, प्रज्ञा, श्रुति, युग, देश, वृत्ति तथा क्रम-व्यवस्था आदि का ठीक-ठीक पालन किया। उन्होंने कहीं पर किसी प्रकार का व्यतिक्रम नहीं आने दिया।

        यह उल्लेखनीय है कि स्मृति के अनुसार सृष्टिकर्ता चार हैं—ब्रह्मा, विराट् पुरुष, मनु और मरीचि आदि दस ऋषि। अब जन्म के अनुसार वर्गीकरण का सत्य ये है कि गर्भ की झिल्ली से उत्पन्न होने वाले प्राणी जरायुज कहलाते हैं । माता के गर्भ से अण्ड के रूप में उत्पन्न होने वाले प्राणी अण्डज कहलाते हैं।गरमी और गंदगी के कारण आने वाले पसीने आदि से बने दुर्गन्धमय वातावरण से उत्पन्न होने वाले क्षुद्र (छोटे-छोटे) प्राणी स्वेदज कहलाते हैं। जूं, खटमल, मच्छर, मक्खी तथा इन-जैसे कीट-मकोट (कीड़े-मकोड़े) आदि स्वेदज जीव हैं। योनि (उत्पत्ति-स्थान) को फोड़कर उससे बाहर निकल आने वाले उद्‌भिज जीव कहलाते हैं। सभी औषधियां (जड़ी-वूटी से उत्पन्न होने वाले फल-पुष्प, जिनका प्रयोग औषधि-रूप में किया जाता है) इसी प्रकार के उद्‌भिज जीव हैं। ऐसे उद्‌भिज जीवों को वनस्पति कहा जाता है, जिनके फल ही होते हैं, पुष्प नहीं होते। और इन्ही के फलों के बीज से दूसरे फल का जन्म होता है। 

आदिदेव परमात्मा प्राणियों को उनके कर्मों का फल देने के लिए सृष्टि के साथ समय की भी रचना करता है। आंखों की पलकों के गिरने में लगने वाला समय 'निमेष' कहलाता है। अठारह निमेषों के समुदाय को 'काष्ठा', तीस काष्ठाओं को 'कला', तीस कलाओं को 'मुहूर्त' और तीस मुहूर्त का एक 'दिन-रात' होता है । रात्रि प्राणियों की विश्राम-वेला है और दिन क्रिया-कलापों में प्रवृत्त होने का समय है। मनुष्यों का एक मास, अर्थात्‌ तीस दिन, जिसका विभाजन 15-15 दिनों के शुक्ल और कृष्ण नामक दो पक्षों में किया जाता है, प्रतिपदा से पूर्णिमा तक की पन्द्रह तिथियां अथवा दिन (चांदनी रातें) शुक्ल पक्ष के अन्तर्गत तथा प्रथमा से अमावस्या तक की पन्द्रह तिथियां (अंधेरी रातें) कृष्ण पक्ष के अन्तर्गत हैं। शुक्ल पक्ष को ‘सुदी’ और कृष्ण पक्ष को ‘वदी’ संक्षेप भी दिया जाता है। मनुष्यों के छह-छह मासों के दो अयन होते हैं। सूर्य के दक्षिण से उत्तर की ओर आने की छह मास की अवधि (माघ से आषाढ़ तक) उत्तरायण तथा उत्तर से दक्षिण की ओर जाने की छह मास की अवधि (श्रावण से पौष तक) दक्षिणायन कहलाती है। इन दो अयनों (उत्तरायण और दक्षिणायन) का बारह मासों का एक वर्ष होता है। मनुजी के अनुसार मनुष्यों का एक वर्ष देवों का दिन-रात होता है। उत्तरायण देवों का दिन है और दक्षिणायन उनकी रात्रि है। दक्षिणायन में देवता विश्राम करते हैं और उत्तरायण में वे जागते तथा कार्य करते हैं।

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( अध्याय प्रथम के भाग 2 का सार उपरोक्त है जिसका अभी कुछ विस्तार शेष है। जो अगले अंक में वर्णित होगा)


























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