दमन और जिद की राजनीति....!!

दमन और ज़िद की राजनीति.? ?

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अंततोगत्वा वही हुआ जो चाहा जा रहा था। कोई लाख हाथ पैर मारे आज का सत्य यही है कि जिसकी सत्ता , उसकी ही अधिपत्य .......ख़ुशी मनाइए कि हम निरन्तर ऐसे समाज के निर्माण की ओर बढ़ रहे हैं जहाँ जनआवाज़ के मायने कोई नहीं , प्रभुत्व और ज़िद की महत्ता है। आवाजें चाहे व्यक्तिगत हो या सामूहिक...... लेकिन अगर सत्ता की जिद उस आवाज़ से बड़ी है तो वो अपनी आवाज़ की गूंज चहुँओर नहीं फैला सकती। शायद इसलिए भी की सत्ता की ज़िद के विस्तार के लिए उसके भोंपू हर जगह पर स्थापित किये जा चुके हैं। 

                 ये कमाल नहीं तो और क्या है कि अब ये ज़िद जिंदगियों से भी बड़ी है । समूह की इच्छाओं से बड़ी है और जन बल से बड़ी है। सत्ता और प्रभुत्व की जिद में ट्रम्प की क्या स्थिति हुई पूरे विश्व ने देखा। उसी तरह की जिद की आज हिंदुस्तान में भी आजमाईश हो रही। क्योंकि जनतंत्र में जनता की आवाज़ की बहुत क़ीमत होती है। इस लिए उसे कुछ समय के लिए दबा तो सकते है लेकिन उसके सार्वजनिक प्रभाव को ख़त्म नहीं कर सकते। समय एक बहुत बड़ा हथियार है जो हर दबदबे और जबरदस्ती को जवाब देता है। लेकिन उसका अपना तरीका है। भारत भी उस समय की प्रतीक्षा कर रहा है । कृषक आंदोलन एक चेतावनी है । जनतंत्र में ऐसी सामूहिक चेतावनियां त्वरित प्रभाव भले ही नहीं दिखा पाएं परन्तु ये कालजयी साबित होती है। जो इतिहास में दर्ज होकर किसी भी सत्ता का भविष्य निर्धारित करती हैं।

       पर अब इसका निर्धारण समय करेगा। क्योंकि समय ही सबका न्याय करता है । अच्छे का भी और बुरा का भी। और तमाम उनका भी जो इन अच्छे और बुरे के पक्ष में अपनी राय बना कर आवाज़ बुलंद करते हैं। 

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