मनुस्मृति : प्रथम अध्याय 📖🕉️

 मनुस्मृति : प्रथम अध्याय 📖 🕉️

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प्रथम अध्याय में भगवान मनु से महिऋषियों ने सृष्टि की उत्पत्ति और प्रादुर्भाव जानने का प्रयास करते हुए विभिन्न वर्णों और वर्णसंकर (अर्थात दो भिन्न वर्ण के युगल से ) संतान के धर्म और जातिगत धर्मपालन के बारे में जानने की इच्छा व्यक्त की। साथ ही जलचर ,नभचर , स्थलचर, अंडज(गर्भ से अंडे के रूप में निकलना) स्वदेज ( पसीने व गंदगी से जन्मना ) उद्भिज अर्थात गर्भ फाड़ कर निकलने वाले प्राणी और पेड़ पौधों के बारे में जानना चाहा।

तब मनु ने तमाम जिज्ञासाओं को शान्त करने के लिए वृस्तृत विवेचन प्रारम्भ किया और बताया....प्रलयकाल में जब सब ओर सिर्फ अंधकार और तम था कही कुछ भी जीवन का चिन्ह नहीं था तब नारायण ने जल ,आकाश ,वायु ,अग्नि और पृथ्वी के रूप में अपनी पंचभूत शक्तियों को उत्पन्न किया। इस पंचभूतात्मक शक्तियों से जिस प्रकृति ने जन्म लिया उसमें नारायण ने एक बीज प्रत्यारोपित किया । अल्पकाल में ही वह बीज सूर्य के समान चमकीला हो गया और उसमें से ब्रम्हा जी की उत्पत्ति हुई। ब्रम्हा जी ने ख़ुद को निर्विकार ब्रम्ह और सविकार प्रकृति सहित ब्रम्हा के रूप में विकसित किया। इन दोनों रूपों से दो लोकों की रचना हुई। द्युलोक और पृथ्वीलोक , मध्य में आकाश और आठ दिशाओं का निर्माण किया। इसके उपरांत मन , आत्मा, और सत्व रज व तम जैसे तीन गुण तथा पांचों इंद्रियों की रचना की। अब इन सब को मिलाकर प्राणी की रचना हुई। जड़ जगत शरीर और सच्चिदानंद परमात्मा स्वरूपी आत्मा से मानव तन बना। इसके उपरांत अविनाशी परमात्मा ने सात अहंकार , पांच ज्ञानेन्द्रियाँ तीन देव-अग्नि ,वायु ,सूर्य और साथ ही तीनों वेदों को प्रगट किया । अब इसके बाद अनादि ने समय , समय के विभाग यानी - कल्प, युग अयन ,मास , पक्ष ,तिथि ,प्रहर ,घटिका, कला काष्ठा आदि को बनाया। नक्षत्र ग्रह, समुद्र नदी पर्वत , और सम विषम भूखंडों की रचना की।

गणित ज्योतिष में समय का सर्वाधिक लघु एकल (यूनिट अथवा इकाई) काष्ठा है, काष्ठाओं से एक कला, कलाओं से एक पल, पलों से एक घटिका, घटिकाओं से एक प्रहर, आठ प्रहरों से एक तिथि अथवा एक रात-दिन, पन्द्रह तिथियों से एक पक्ष, दो (कृष्ण और शुक्ल) पक्षों से एक मास, छह मासों से एक अयन, दो (दक्षिणायन और उत्तरायण) अयनों से एक वर्ष और लगभग दस हज़ार वर्षों से चार युग और इन चार युगों (सत्‌युग, त्रेता, द्वापर तथा कलियुग) से एक कल्प बनता है। अनेक कल्पों के उपरान्त सृष्टि में प्रलय आता है। यही काल का विभाजन है।

कर्मों का विवेक बनाये रखने को धर्म और अधर्म की धारणा विकसित की ।जिससे ये निश्चित किया जा सके कि धर्म से सुख और अधर्म से दुःख की प्रप्ति होती है। सृष्टि रचना होने पर इसी सत असत कर्मों के फलस्वरूप जीवों को योनियां प्राप्त हुई। अनादि ब्रह्म ने लोककल्याण की कामना से अपने मुख, बाहु, घुटनों तथा चरणों से क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र वर्णों को उत्पन्न किया। प्रभु ने सृष्टि के क्रम को निरन्तर प्रवर्तनशील बनाये रखने के लिए अपने जगत् शरीर को दो भागों में विभक्त किया। आधा भाग पुरुष कहलाया और आधा भाग स्त्री कहलाया। इस एक आधे और दुसरे आधे ने मिलकर इस विराट् जगत् को उत्पन्न किया।

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{आज के अंक में इतना ही क्योंकि प्रथम अध्याय काफी वृस्तृत है जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि की रचना का विवरण है।अतः बाकी का अगले अंकों में .....🙏}

















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