खुद पर कुछ ज्यादा ही यक़ीन..😑🙏
ख़ुद पर ज़्यादा ही यक़ीन...😑🙏
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"कहीं एक बहुत अच्छी बात सुनने में आई।" उससे हम सबकी जिंदगियाँ जुड़ी है।इसलिए सोचा कि चलो थोड़ी उसी के बारे में चर्चा की जाए।
बात ये है कि " एक नियत उम्र लगभग चालीस वर्ष तक हम सब को लगता है कि हमारी जिंदगी में जो भी हो रहा है वह हम ही कर रहे। हमारे ही प्रयासों से जिंदगी के सभी समीकरणों की स्थिति बन रही है। हमारी इच्छा से समय , नियति और परिस्थिति हमारा साथ दे रही। हम ही अपनी जिंदगी के सर्वेसर्वा कर्ताधर्ता हैं ।"
क्या आप भी इसी उम्र के दरम्यान के हैं और ऐसा ही सोचते हैं.....जरूर सोचते होंगे क्योंकि उस समय उम्र का तकाज़ा होता है कि अपने आत्मविश्वास से आसमान छू लो। पर इस का दूसरा पहलू भी देखें कि जैसे जैसे उम्र बढ़ती है । वैसे वैसे ये विश्वास स्वयं पर से बदल कर परमपिता की ओर बढ़ने लगता है। अर्थात उस समय ये यक़ीन होने लगता है कि कोई तो है जो पूरी दुनिया को संचालित और नियंत्रित कर रहा है। जो हमें भी अपनी इच्छा के अनुसार शासित कर रहा है। उस समय ईश्वर पर विश्वास भी बढ़ने लगता है हम उसके और करीब जाने लगते हैं । उससे अपने सुख दुःख बांटने लगते है। उसे अपना मान कर उससे मांगे करने लगते हैं। और तब हर परिस्थिति को ये मान कर स्वीकार करने लगते है कि ये उसकी मर्जी से है। ये एक अच्छा संकेत हैं। क्योंकि कहते हैं ना कि ये सोचो कि जब मन का हो तो बहुत अच्छा पर जब ना हो तो उससे भी अच्छा क्योंकि उसमें प्रभु की मर्ज़ी होती है। और उसने सोचा है तो अच्छा ही होगा।
बस बात यही है कि ये सोच अगर हम कुछ समय पहले ही समझ लें तो शायद हमें दुनिया समाज से ख़ुद के लिए इतनी अपेक्षाएं रखकर सुख दुःख में उलझना नहीं पडेगा। जब हम स्वयं को आगे रखते हैं तो प्रतिस्पर्धा हो जाती है। जबकि जब हम प्रभु को आगे रखते है तो वह उत्साह बन जाता है।
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