मनुस्मृति अध्याय 2 भाग 2
महर्षियों ने धर्म की पहचान के चार लक्षण (आधार) निर्धारित किये हैं— (1) वेद में प्रतिपादित, (2) शास्त्रों द्वारा समर्थित, (3) साधु पुरुषों द्वारा अनुष्ठित-आचरित तथा (4) अपनाने वाले व्यक्ति की आत्मा के लिए सुखद। इन चारों कसौटियों पर खरा उतरने वाला तत्त्व ही साक्षात् (प्रत्यक्ष—जिसके लिए किसी अन्य प्रमाण की अपेक्षा नहीं) धर्म है। इसका सरल शब्दों में अर्थ ये है कि वेद द्वारा बताया गया,शास्त्रों द्वारा बताया गया , ज्ञानी पुरुषों द्वारा बताया गया या फिर अपनी अंतरआत्मा द्वारा सही गलत के निर्णय के बाद जो अपनाने के लिए उचित लगे वही सच्चा धर्म है। पुरुष के लिए अभीष्ट रूप में निर्धारित चार वर्णों (पुरुषार्थों) धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से प्रायः मनुष्य धर्म और मोक्ष की उपेक्षा करते हैं और अर्थ-लाभ तथा काम-भोग में आसक्त हो जाते हैं। ऐसे लोगों की रुचि-प्रवृत्ति धर्म में होती ही नहीं। अतः महर्षि मनु का कथन है— अर्थ और काम में अनासक्त प्राणियों के लिए ही धर्मोपदेश का विधान किया गया है। वेद के जिस प्रकरण में मनुष्य के जन्म से मृत्युपर्यन्त सभी संस्कारों के विधि-विधान का उल्लेख किया गया है, उस प्रकरण का ही समावेश इस मनुस्मृति ग्रन्थ में हुआ है। वेदों का दर्शन-श्रवण तथा स्मृतियों को स्मृति-पटल में रखने (स्मरण करने) का कार्य मुनि लोग ही करते हैं, अतः मुनियों का वचन भी प्रामाणिक है—ऐसी मान्यता है। सरस्वती और दृषद्वती नामक देवनदियों के मध्यवर्ती भूभाग में बसा प्रदेश स्वयं देवों द्वारा निर्मित ब्रह्मावर्त नामक देश कहलाता है। उस देश (ब्रह्मावर्त) के निवासी ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों तथा शूद्रों के द्वारा अपनाया जाने वाला आचार ही सदाचार है ,सत् पुरुषों द्वारा अपनाया गया व्यवहार ही सदाचार है जिनका परम्परा रूप से पालन किया जाता है।
अर्थात् श्रेष्ठ पुरुष के आचरण का सामान्य जनों द्वारा अनुकरण किया जाता है। इस प्रकार मनु ने इन देशों के ब्राह्मणों को श्रेष्ठ और ज्येष्ठ माना है तथा संसार के लोगों से उनके जीवन का अनुकरण करने की अपेक्षा की है। पूर्व में समुद्र से पश्चिम समुद्र तक, हिमाचल और विन्ध्याचल के मध्यवर्ती प्रदेश को विद्वान् लोग आर्यावर्त (आर्यों द्वारा आवृत, घिरा हुआ अथवा आर्यों का आवर्त-निवास) कहते हैं। इन पवित्र देशों में रहने से वातावरण की शुद्धता के कारण न केवल व्यक्तियों का आचरण पवित्र रहता है, अपितु उनकी धर्मानुष्ठान में रुचि-प्रवृत्ति भी बनी रहती है। इसलिए परिवेश के व्यक्तित्व पर प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। वैदिक कर्मकाण्ड अथवा वेदविहित संस्कार मनुष्य के इस लोक को और परलोक को पवित्र बनाने वाले हैं। इन संस्कारों के सम्पादन से मनुष्य का शरीर पवित्र हो जाता है। वैदिक संस्कारों के द्वारा व्यक्ति संस्कृत (परिष्कृत-परिमार्जित) हो जाता है। अतः प्रत्येक मनुष्य को सभी संस्कारों द्वारा अपने को शुद्ध-पवित्र बनाना चाहिए।
भाग - 2 इति...शेष विस्तार अगले अंक में
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