राजनीति की भेंट चढ़ता सामाजिक जीवन
राजनीति की भेंट चढ़ता सामाजिक जीवन......!! ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
क्यों हम अपनी सामाजिकता को राजनीति की भेंट चढ़ा रहे हैं । अफगानिस्तान में हो रहे घटनाक्रम में ये साबित हो रहा है कि खेल बड़े राजनेता और देश की सरकारें खेलते हैं और पिसता कौन है एक आम नागरिक। जिसमें असहाय बच्चे , बूढें और महिलाएं भी शामिल होती हैं। चंद सत्ता सुख पाने वाले नेता गन्दी राजनीति खेलते हैं और इस राजनीति के खेल में मरती या पिसती सिर्फ जनता है। कोई बड़ी इमारत या पुल गिरता ठेकेदार या इंजीनियर की वजह से है लेकिन मरता तो सिर्फ काम करने वाला गरीब मजदूर है। जबकि उस धांधली का पैसा बंटता है रसूखदारों में , नेताओं में और उन ठेकेदार और इंजीनियर में भी। ये हमारी गलती है कि हम राजनीति को ही अपना जीवन समझ लेते हैं और फिर रही सही कसर तब पूरी हो जाती है जब हम उसमें धर्म का तड़का लगा देते हैं। ये हम खुद नहीं करते ये हमसे करवाया जाता है क्योंकि हमारी मानसिक कमजोरियों को राजनीति के शतरंज पर पासे की तरह इस्तेमाल करना इन सत्ता लोलुभ नेताओं को बखूबी आता है।। आख़िर ये बताएं कि उस आम आदमी को धर्म , जिहाद ,कट्टरता से क्या वास्ता जो रोज ये सोच कर कमाने निकलता है कि उसकी कमाई घर आएगी तो रोटी बनेगी। चाहे वो एक रिक्शावाला हो या सब्जी की रेहड़ी लगाने वाला। अफगानिस्तान में आम आदमी जिसे अपनी बेटी बीवी के साथ एक आम सी जिंदगी गुजारना अच्छा लग रहा था वो भी आज दहशत में उन्हें लेकर बच कर कहीं भाग जाने की फिराक में हैं। अफसोस लेकिन ये जनता का सत्य है। जिसे जनता समझ नहीं पा रही। क्योंकि जनता में से ही कुछ लोग भी ऐसे है जो चंद लालचों के चक्कर में इन सत्ता लोलुभ लोगों को सपोर्ट कर रहे हैं। जिनके लालच की सज़ा बाकी के तमाम लोग भुगतते हैं। एक महत्वपूर्ण बात ये भी सोचने की है कि आख़िर क्यों राजनीति को धर्म की आड़ देकर उसे और कट्टर बनाया जा रहा। जो धर्म अपनी रक्षा के लिए राजनीति का सहारा ले और खुद को बनाये रखने के लिए हिंसा करवाये क्या वह पालन योग्य है ? ? आफ़ग़ानिस्तान की ताजा तरीन स्थिति इस बात का सबूत है कि बड़ों की लड़ाई में मरता हमेशा छोटा है। वो जनता जो वोट देती है वो जनता जो उम्मीद पर सरकार चुनती है वो जनता जो अपने नेता को अपनी कमान देती है अंततः भुगतती भी वही है। निचला तबका जो रोटी की जुगाड़ में सुबह से रात तक खटता है उसका जीवन और इन मतलबपरस्त नेताओं के जीवन की तुलना कर के क्यों नहीं देखा जाता। क्योंकि एक वोट की दावेदारी तो उसकी भी है। आखिर क्यों .....किसी नेता की राजनीति साधने के लिए जनता की बलि चढ़ाई जाती है। इस गंदगी से खुद को निकालना बहुत जरूरी है। नहीं तो हमारी औक़ात उन कीड़े मकोड़ों की तरह बना दी जाएगी जिन्हें कुचलने के लिए नेताओं को सिर्फ ईशारा करना होगा। हमारा कोई अपना ही हमें कुचल कर मार डालेगा क्योंकि उसे कुचलने के इनाम के झांसे ने बरगला रखा होगा। जो लोग राजनीति को विकास का गणित समझते है असल में ये मौत का खेल हैं। जिसमें राजा अंत तक सुरक्षित रहता है। क्योंकि उसने अपने इर्द गिर्द प्यादों को फिट कर रखा है । इसलिए चेतिये और राजनीति को जीवन से अलग कीजिये। ये राजनीति हमारे करीबी रिश्तों को भी खा रही है।
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