उपयोगिता और संतुष्टि का तालमेल...!!
उपयोग और संतुष्टि का तालमेल !
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आदतों से जुड़ा एक और मुद्दा जिस पर चर्चा करने योग्य है। वह है कि आप कितनी जल्दी किसी भी वस्तु , परिस्थिति या व्यक्ति से ऊब जाते हैं ? ये सोचना आवश्यक है क्योंकि इसी से आप की इच्छाओं और जरूरतों का मामला जुड़ा है। आप ने कोई चीज हांसिल की और फिर कुछ समय बाद ही आप उसे छोड़ कर किसी अन्य चीज के पीछे भागने लग गए। ये ही लालच है। इस में आप दो तरह का नुकसान उठाते है पहला ये की पहली वस्तु का पूरी तरह और पुरे समय तक लुत्फ़ नहीं उठा पाते दूसरा उसे अच्छी तरह प्रयोग किये बिना ही दूसरी पर धन खर्च कर दिया जाता है । ये प्रयोग किसी परिस्थिति व्यक्ति पर भी उसी तरह लागू होता है जैसे की एक सामान्य वस्तु पर। अर्थात किसी परिस्थिति में आप के साथ कुछ अच्छा हुआ पर उसमें पूरी तरह खुश होकर डूबने के बजाये अगर आप ये सोचने लग जाए कि इस से भी बेहतर मेरी जिंदगी में कुछ हो सकता था या मैं इस से ज्यादा का अधिकारी था यही भावना है जो वर्त्तमान को स्वीकार कर के उसका लुत्फ़ उठाने नहीं देती। और आप और अधिक की या कुछ भिन्न की चाह में दुखी होने लगते हैं।
जीवन में हम जो भी हांसिल करते हैं वह दो तरीके से होता है पहला अपने आप या दूसरा हमारे प्रयास से। दोनों ही स्थितियों में दिल से उसे स्वीकार करने में ही हमारी भलाई है। साथ ही स्वीकार करने के बाद उसकी निरंतरता बनाये रखना ज्यादा जरूरी है जिस से हमे तुरंत ही किसी दूसरी वस्तु या परिस्थिति की आवश्यकता न पड़े। उसकी निरंतरता के लिए आप को उसे साथ रखना होगा और संतुष्टि बनाये रखने का प्रयास करना होगा साथ ही किसी वस्तु के सन्दर्भ में ये भी देखना होगा कि जब तक उसकी उपयोगिता बिलकुल ही खत्म न हो जाए। आप ने गन्ने के रस वाले को रस निकलते हुए अक्सर देखा होगा। वह गन्ने को तब तक मशीन में डालता है जब तक की वह सूख के पाउडर के सामान भुरभुरा न हो जाए ....ऐसे ही हमे भी जीवन के संसाधनों का प्रयोग करने चाहिए। क्योंकि इच्छाओं का तो अंत नहीं है आज एक मोबाइल लिया कल कोई और अच्छा मॉडल देख कर बदल लिया। ये धन की बर्बादी के साथ उपलब्ध साधनों का गैरजिम्मेदाराना उपयोग है। कपडे अलमारियों में भरे हुए हैं फिर भी फैशन के चलते नए नए खरीदते जाओ। आखिर इतनी जगह कहाँ से लाएंगे उन्हें समटने के लिए ? कमाया हुआ धन सीमित होता है और उसे खर्च करते समय सब से पहले आवश्यक प्राथमिकताओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। बाजार की उपलब्धतता हमारे अर्जित धन के दोहन के लिए नहीं बल्कि आवश्यक उपयोगिताओं की परख के लिए होनी चाहिए।
लेकिन इन सब से जुड़ा रिश्तों पर भी एक महत्वपूर्ण नियम लागू होता है कि आप किसी व्यक्ति या किसी रिश्तों में संतुष्ट होने के लिए उसका दोहन न करें बल्कि दोतरफा रिश्ते को चलाने के लिए खुद को भी उसकी उपलब्धतता के लिए प्रस्तुत करें जिस से सामने वाले को भी आवश्यकतानुसार आप की उपस्थिति का अहसास बना रहे । ये ही सही मायनों में सामाजिक जीवन का सार है जिसे समझ कर हम संतुष्ट और सुखी हो सकते हैं।
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आदतों से जुड़ा एक और मुद्दा जिस पर चर्चा करने योग्य है। वह है कि आप कितनी जल्दी किसी भी वस्तु , परिस्थिति या व्यक्ति से ऊब जाते हैं ? ये सोचना आवश्यक है क्योंकि इसी से आप की इच्छाओं और जरूरतों का मामला जुड़ा है। आप ने कोई चीज हांसिल की और फिर कुछ समय बाद ही आप उसे छोड़ कर किसी अन्य चीज के पीछे भागने लग गए। ये ही लालच है। इस में आप दो तरह का नुकसान उठाते है पहला ये की पहली वस्तु का पूरी तरह और पुरे समय तक लुत्फ़ नहीं उठा पाते दूसरा उसे अच्छी तरह प्रयोग किये बिना ही दूसरी पर धन खर्च कर दिया जाता है । ये प्रयोग किसी परिस्थिति व्यक्ति पर भी उसी तरह लागू होता है जैसे की एक सामान्य वस्तु पर। अर्थात किसी परिस्थिति में आप के साथ कुछ अच्छा हुआ पर उसमें पूरी तरह खुश होकर डूबने के बजाये अगर आप ये सोचने लग जाए कि इस से भी बेहतर मेरी जिंदगी में कुछ हो सकता था या मैं इस से ज्यादा का अधिकारी था यही भावना है जो वर्त्तमान को स्वीकार कर के उसका लुत्फ़ उठाने नहीं देती। और आप और अधिक की या कुछ भिन्न की चाह में दुखी होने लगते हैं।
जीवन में हम जो भी हांसिल करते हैं वह दो तरीके से होता है पहला अपने आप या दूसरा हमारे प्रयास से। दोनों ही स्थितियों में दिल से उसे स्वीकार करने में ही हमारी भलाई है। साथ ही स्वीकार करने के बाद उसकी निरंतरता बनाये रखना ज्यादा जरूरी है जिस से हमे तुरंत ही किसी दूसरी वस्तु या परिस्थिति की आवश्यकता न पड़े। उसकी निरंतरता के लिए आप को उसे साथ रखना होगा और संतुष्टि बनाये रखने का प्रयास करना होगा साथ ही किसी वस्तु के सन्दर्भ में ये भी देखना होगा कि जब तक उसकी उपयोगिता बिलकुल ही खत्म न हो जाए। आप ने गन्ने के रस वाले को रस निकलते हुए अक्सर देखा होगा। वह गन्ने को तब तक मशीन में डालता है जब तक की वह सूख के पाउडर के सामान भुरभुरा न हो जाए ....ऐसे ही हमे भी जीवन के संसाधनों का प्रयोग करने चाहिए। क्योंकि इच्छाओं का तो अंत नहीं है आज एक मोबाइल लिया कल कोई और अच्छा मॉडल देख कर बदल लिया। ये धन की बर्बादी के साथ उपलब्ध साधनों का गैरजिम्मेदाराना उपयोग है। कपडे अलमारियों में भरे हुए हैं फिर भी फैशन के चलते नए नए खरीदते जाओ। आखिर इतनी जगह कहाँ से लाएंगे उन्हें समटने के लिए ? कमाया हुआ धन सीमित होता है और उसे खर्च करते समय सब से पहले आवश्यक प्राथमिकताओं पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। बाजार की उपलब्धतता हमारे अर्जित धन के दोहन के लिए नहीं बल्कि आवश्यक उपयोगिताओं की परख के लिए होनी चाहिए।
लेकिन इन सब से जुड़ा रिश्तों पर भी एक महत्वपूर्ण नियम लागू होता है कि आप किसी व्यक्ति या किसी रिश्तों में संतुष्ट होने के लिए उसका दोहन न करें बल्कि दोतरफा रिश्ते को चलाने के लिए खुद को भी उसकी उपलब्धतता के लिए प्रस्तुत करें जिस से सामने वाले को भी आवश्यकतानुसार आप की उपस्थिति का अहसास बना रहे । ये ही सही मायनों में सामाजिक जीवन का सार है जिसे समझ कर हम संतुष्ट और सुखी हो सकते हैं।
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