LETS KILL ADULTERATION WITH YOUR INNER INSTINCT..........!
जब रोज ही इस तरह की घटनाएं सामने आएँगी तब जीने के लिए क्या चुना जाए- क्या नहीं , ये सोचने का विषय बन जाता है। आप अपने जीवन में खाने पीने की तमाम चीजें प्रयोग करतें हैं। कुछ बेहद पसंद होती हैं तो कुछ रोजमर्रा की आदतों में शुमार हो जाती हैं। जैसे एक सामान्य सा उदाहरण , सुबह काम पर जाने के समय नाश्ते में ओट्स या दलीया खाना। शहरी जीवन में अमूमन खाने पीने की सभी वस्तुएं बाजार से खरीदी जाती है। आज कल तो बड़े बड़े मॉल्स और शोरूम भी किराना व्यवसाय में नफे का प्रतिशत देख हाथ आजमाने लगे हैं। इसी कारण लोगों को चुनाव के लिए ज्यादा किस्में भी मिलने लगी हैं। लेकिन सब बातों की एक बात ये है कि आप जो भी चुन कर खाने के लिए खरीद रहे हो क्या उसके बारे में आप आश्वस्त हो की वो वस्तु शुद्धतता के सारे पैमानों पर खरी उतर सकती है ? ये प्रश् आज यक्ष की तरह मुहं खोल कर हर व्यक्ति के सामने खड़ा है। फिर भी हर लाचार व्यक्ति इस को अनदेखा कर के जी रहा है। क्योंकि जीने के लिए खाना जरूरी है। आखिर इस समस्या का हल क्या है इस पर विचार किया जाना बहुत जरूरी हो गया है।
सबसे पहले हमें अपने खाने पीने की बहुत सी आदतों में बदलाव लाने की जरूरत है। भले ही बाहर का खाना स्वादिष्ट लगता है पर उसके नकारात्मक पहलुओं को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। जैसे कि उसकी ताजगी , प्रयोग की गयी सामग्री , बनाने वाला स्थान , प्रस्तुतकर्ता की स्वछता आदि पर हम ऐसा कभी भी नहीं सोचते। घर में जो कुछ भी पकाया जाता है वह स्वछता और सामग्री के नजरिये से बेहतर होता है। सुविधा और तकलीफ के बीच स्वास्थ्य का पेंडुलम हिलता डुलता रहता है वह हमें आगाह ही नहीं होने देता इसी कारण हम बहुत सी चीजों को देख कर भी नजरअंदाज कर देते हैं। सुविधा ये की बाहर का खाना खा लेना आसान है, तकलीफ ये कि कौन बनाने की ज़हमत ले। अब इस के दूसरे पहलु पर भी गौर करें , ये समस्या उन सामग्रियों पर भी पैर पसार रही है जो कच्ची है और घर ला कर पकाई जाती हैं। अब क्या घर पर ल कर पकाया गया खाना भी शुद्ध नहीं नसीब होगा ? क्योंकि अब नामी गिरामी कंपनियां भी अपने मुनाफे के लिए वह सब पैंतरे आजमाने लगी हैं जिस से ग्राहक को अपना लती बनाया जा सके। ऐसे कई नाम प्रकाश में आने लगें हैं जो अपने उत्पाद की प्रसिद्धि के लिए गुणवत्ता से भी समझौता करने लगे हैं। इस लिए इन सब परिस्थितियों मद्देनजर रखते हुए इस का एक मात्र हल ये है की एक बार फिर से पुरानी दाल रोटी की और लौट जाओ। वही जो हमारे पुरखे बरसों से खा रहें हैं और अपनी तंदरुस्ती भी बरक़रार रख पा रहें हैं। क्योंकि ये तो मैं अपने आलेखों के जरिये कई बार कह चुकी हूँ कि जियोगे तभी तो दुनिया में रहने का मजा ले पाओगे। अगर दुनिया बदल रही है तो खुद को भी बदलो लेकिन बदलाव बहुत विस्तृत छलांग लगाने के लिए नहीं बल्कि मेंढक की तरह एक कदम पीछे जा कर फिर आगे आने के लिए हो । हम शुद्ध खा सकते हैं बशर्ते हमारा मन इस के लिए राजी हो जाए। अपनी जबान को समझाइये कि मेरे जीवन के साथ तेरी भी उम्र निश्चित है और उसे खुद को जीवित रखने के लिए आप के शरीर से प्यार करना ही होगा।
जब रोज ही इस तरह की घटनाएं सामने आएँगी तब जीने के लिए क्या चुना जाए- क्या नहीं , ये सोचने का विषय बन जाता है। आप अपने जीवन में खाने पीने की तमाम चीजें प्रयोग करतें हैं। कुछ बेहद पसंद होती हैं तो कुछ रोजमर्रा की आदतों में शुमार हो जाती हैं। जैसे एक सामान्य सा उदाहरण , सुबह काम पर जाने के समय नाश्ते में ओट्स या दलीया खाना। शहरी जीवन में अमूमन खाने पीने की सभी वस्तुएं बाजार से खरीदी जाती है। आज कल तो बड़े बड़े मॉल्स और शोरूम भी किराना व्यवसाय में नफे का प्रतिशत देख हाथ आजमाने लगे हैं। इसी कारण लोगों को चुनाव के लिए ज्यादा किस्में भी मिलने लगी हैं। लेकिन सब बातों की एक बात ये है कि आप जो भी चुन कर खाने के लिए खरीद रहे हो क्या उसके बारे में आप आश्वस्त हो की वो वस्तु शुद्धतता के सारे पैमानों पर खरी उतर सकती है ? ये प्रश् आज यक्ष की तरह मुहं खोल कर हर व्यक्ति के सामने खड़ा है। फिर भी हर लाचार व्यक्ति इस को अनदेखा कर के जी रहा है। क्योंकि जीने के लिए खाना जरूरी है। आखिर इस समस्या का हल क्या है इस पर विचार किया जाना बहुत जरूरी हो गया है।
सबसे पहले हमें अपने खाने पीने की बहुत सी आदतों में बदलाव लाने की जरूरत है। भले ही बाहर का खाना स्वादिष्ट लगता है पर उसके नकारात्मक पहलुओं को नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। जैसे कि उसकी ताजगी , प्रयोग की गयी सामग्री , बनाने वाला स्थान , प्रस्तुतकर्ता की स्वछता आदि पर हम ऐसा कभी भी नहीं सोचते। घर में जो कुछ भी पकाया जाता है वह स्वछता और सामग्री के नजरिये से बेहतर होता है। सुविधा और तकलीफ के बीच स्वास्थ्य का पेंडुलम हिलता डुलता रहता है वह हमें आगाह ही नहीं होने देता इसी कारण हम बहुत सी चीजों को देख कर भी नजरअंदाज कर देते हैं। सुविधा ये की बाहर का खाना खा लेना आसान है, तकलीफ ये कि कौन बनाने की ज़हमत ले। अब इस के दूसरे पहलु पर भी गौर करें , ये समस्या उन सामग्रियों पर भी पैर पसार रही है जो कच्ची है और घर ला कर पकाई जाती हैं। अब क्या घर पर ल कर पकाया गया खाना भी शुद्ध नहीं नसीब होगा ? क्योंकि अब नामी गिरामी कंपनियां भी अपने मुनाफे के लिए वह सब पैंतरे आजमाने लगी हैं जिस से ग्राहक को अपना लती बनाया जा सके। ऐसे कई नाम प्रकाश में आने लगें हैं जो अपने उत्पाद की प्रसिद्धि के लिए गुणवत्ता से भी समझौता करने लगे हैं। इस लिए इन सब परिस्थितियों मद्देनजर रखते हुए इस का एक मात्र हल ये है की एक बार फिर से पुरानी दाल रोटी की और लौट जाओ। वही जो हमारे पुरखे बरसों से खा रहें हैं और अपनी तंदरुस्ती भी बरक़रार रख पा रहें हैं। क्योंकि ये तो मैं अपने आलेखों के जरिये कई बार कह चुकी हूँ कि जियोगे तभी तो दुनिया में रहने का मजा ले पाओगे। अगर दुनिया बदल रही है तो खुद को भी बदलो लेकिन बदलाव बहुत विस्तृत छलांग लगाने के लिए नहीं बल्कि मेंढक की तरह एक कदम पीछे जा कर फिर आगे आने के लिए हो । हम शुद्ध खा सकते हैं बशर्ते हमारा मन इस के लिए राजी हो जाए। अपनी जबान को समझाइये कि मेरे जीवन के साथ तेरी भी उम्र निश्चित है और उसे खुद को जीवित रखने के लिए आप के शरीर से प्यार करना ही होगा।
Comments
Post a Comment