मशीनी जिंदगी और हम

मशीनी जिंदगी और हम :                  •••••••••••••••••••••••

महसूस करने की क्षमता खत्म सी हो रही। इंसान मशीनी बनता जा रहा। उसके पास अब इतना भी समय नहीं कि। अपनी ही भावनाओं का सही आंकलन कर सके। सुख दुःख के असल कारणों को समझ सके। दुख आता है तो अपनी दूरी तय करता हुआ आता है। फिर कहीं भीतर जगह बना लेता है। और गहरे बैठ जाता है। नश्तर की तरह चुभता भी रहता है। पर चाह कर भी हम उसकी उपस्थिति को नकार नहीं सकते।

कोई भी दुःख अचानक नहीं आता क्योंकि हम उन परिस्थितियों से जुड़े होते हैं,  जिनकी वजह से वो आता है। उसके साथ हम भी फिर कहीँ खो जातें है। हमें लगता है कि वो चला गया। पर वो हमारे साथ ही रहता है कहीं जाता नहीं है। धीरे धीरे उसके साथ के वो सारे पल लौट आते हैं। पुरानी बहुत सी बातें अंतर्मन को कचोटती हैं। वही कहीं से बहुत कुछ ऐसा निकल आता है। जो सामने तो होता है। पर छू नहीं सकते।  

ऐसी बातें अक्सर बकवास सी लगने लगती हैं। परन्तु जब तक हम हैं आसपास सब लोग हैं। ये बातें ये परिस्थितियां हमसे  जुड़ी रहेंगी। बार-बार उन्हीं शब्दों के पास लौटना होता है। जो यादों को छलनी कर रहे होते हैं। हम स्मृतियों को बंद नहीं कर सकते। स्मृतियाँ हमें बंद कर लेती हैं। कुछ तो हुआ है। कुछ भी तो नहीं हुआ है। सब ठीक तो चल रहा है। पर सब ठीक नहीं है। क्योंकि जो कुछ ठीक लग रहा वही शायद कुछ देर बाद हमें अव्यवस्थित करने लगे। लाख समझने समझाने के बाद भी हम उसे अपने अनुरूप नहीं ढाल सकते। इसलिए हमें ही सामंजस्य बनाकर जीना सीखना होता है। 

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