
पर्व और रिश्तों का तालमेल........ !
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हमारे समाज में एक परिवार तब संपूर्ण माना जाता है जब उसमें एक माता पिता और एक बेटा और एक बेटी हो। क्योंकि हर सदस्य से जुड़े कुछ पर्व , कुछ नियम और कुछ रिश्ते होते हैं। जो एक संपूर्ण परिवार में निभाए जा सकते हैं। हिंदुस्तानी जीवन से जुड़ा हर पर्व एक गहरे संबंध का परिचायक है। चाहे उसे रक्षाबंधन नाम दे , करवाचौथ , तीज , वटसावित्री व्रत , शीतलाष्टमी , तिलचौदस , छठ पूजा , बछबारस या फिर और कई....... सभी किसी न किसी रिश्ते से जुड़ कर उसकी बेहतरी की कामना करते हुए मनाए जातें हैं। इसी तरह हर रिश्ते से जुड़े कुछ नियम ,कायदे कानून भी हैं जो रिश्तों की मर्यादा को बनाये रखने के लिए आवश्यक होते हैं। जैसे भाईबहन का रिश्ता , अपनापन भी साथ ही लिंगभेद के कारण एक निश्चत दूरी भी , सास बहु का रिश्ता ,रोज के तर्क वितर्क फिर भी इस अहसास से जुड़ा की एक ही व्यक्ति उन दोनो के बीच का पुल है , ननद भाभी का रिश्ता , जिसमें हर समय बराबरी की कोशिश फिर भी सहेलियों वाला अपनत्व , देवर भाभी का रिश्ता , जिसमें छेड़ छाड़ वाली भावनाएं फिर भी माँ सामान स्वीकारने की कोशिश। ये कुछ ऐसे नियम है जो रिश्तों को उनकी मर्यादाओं में बांधें रहते हैं।
लेकिन इन सब से परे यदि परिवार संपूर्ण न हो तो ..... ? तो क्या ये पर्व बेमानी हो जातें है। इनकी महत्ता जीवन से ख़त्म हो जानी चाहिए ? नहीं हमारा जीवन सिर्फ संबंधों के आधार पर नहीं बना है। हमारी खुशियां हमारी अपनी हैं और उन्हें मनाने के लिए हमें किसी पर्व , रिश्ते या नियम की बंदिशें नहीं झेलनी होंगी। क्या जिस परिवार में सिर्फ बेटियां है वह रक्षाबंधन न मनाये , जबकि यदि देखें तो रक्षा से जुड़ा पर्व में सबसे अहम् भूमिका पिता की होती है इस लिए मैं भी अपनी बेटियों से उनके पिता को राखी बंधवाती हूँ। जो जीवन पर्यंत उनकी रक्षा के लिए खड़ा होने का वचन ले सकते हैं। इसी तरह तीज करवाचौथ का व्रत या आयोजन क्या तभी किया जाए जब पति जीवित हो , क्या इस उत्सव से जुडी मान्यताएं इस लिए नहीं निभाई जा सकती की माता या पिता जो भी जीवित हो उनकी ही लंबी आयु की कामना की जाए या फिर चलो इसी बहाने छोटे ही सही परिवार के लोगों के बीच एक आत्मीयता स्थापित हो जाए। इसी प्रकार एक व्रत बछबारस जो की सिर्फ पुत्रों के लिए किया जाता है क्या वह बेटियां पैदा होने पर नहीं किया जाना चाहिए ? जरूरी यह है कि हम रिश्तों को पर्वों से नहीं बल्कि पर्वों को उपस्थित रिश्तों के आधार पर मान कर खुशियां समेटें। प्यार और अपनेपन के लिए किसी मुहूर्त का इन्तेजार करना क्या जरूरी है ? रिश्तें बने ही इस लिए है कि उन्हें रोज बिना किसी आयोजन के मनाया जाए और सवांरा जाए।
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