विज्ञान और धर्म ....... !
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एक शाश्वत सत्य है कि धर्म और विज्ञान दोनों अलग अलग दिशा में सोचते हैं। जहाँ विज्ञान की सीमायें ख़त्म हो जाती हैं उसके भी आगे धर्म की सीमा बढ़ती रहती है। क्योंकि धर्म सिर्फ तार्किक बातों पर नहीं , विश्वास के बल पर अपना अस्तित्व बना कर चलता है। जैसे की किसी भी शरीर में धड़कन बंद हो जाने पर उसे मृत मान लिया जाता है जबकी धार्मिक रूप में माना जाए तो आत्मा के रूप में एक जीव अजर अमर है। विज्ञान और धर्म का संशय तब टकराता है जब एक परम शक्ति के विषय में दोनों अपने अपने मत से उसे स्वीकार करते हैं। धर्म उस शक्ति को परमात्मा के रूप में मानता हैं। जबकि विज्ञान उसे एक निराकार प्रचालित ऊर्जा के रूप में स्वीकार करता है जो हर किसी के रग-रग में लहू बन कर दौड़ रहा हैं। विज्ञान की शक्ति के बारे में शोध ही किसी दूसरे व्यक्ति को नास्तिक और आस्तिक बनाने के लिए प्रेरित करती है।
विज्ञान का मानना है की जीवन का संपूर्ण सम्बन्ध धड़कन से है और धड़कन न रहने पर जीवन समाप्त। पर इसे दूसरे नजरिये से देखें तो ये सोचें कि कोख में एक भ्रूण पहले ही दिन से पनपने के लिए माँ की गर्भ नाल से अपने जीवन के लिए वायु लेने लगता है। उसे तो अप्रत्यक्ष रूप से श्वास मिल रही है इस के लिए उसे अपने अंगों की कोई आवश्यकता नहीं। तो क्या इसे विज्ञान कहेंगे ? क्या विज्ञान इस के लिए कोई तर्क देगा कि बिना कोई अंग बने एक भ्रूण कैसे श्वास ले कर बढ़ता और पनपता है। ये सब धर्म और परम शक्ति की पराकाष्ठा है जो हमारे जीवन के अंतःकरण से जुडी है। विज्ञान ने कई शोध करके ये जानने की कोशिश की कि आखिर आत्मा है क्या ? ......... परंतु यही पर आ कर उसकी सीमायें ख़त्म हो जातीं है क्योंकि यहाँ से धर्म का विश्वास शुरू होता है जो सीधे परमात्मा से जाकर जुड़ता है। इस लिए अगर विश्वास है तो परमात्मा से वह रिश्ता बनायें जो कि एक गर्भस्थ शिशु का अपनी माँ के साथ होता है। तब सही मायने में हम विज्ञानं और धर्म दोनो को साथ ले कर आगे बढ़ सकेंगे। .
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एक शाश्वत सत्य है कि धर्म और विज्ञान दोनों अलग अलग दिशा में सोचते हैं। जहाँ विज्ञान की सीमायें ख़त्म हो जाती हैं उसके भी आगे धर्म की सीमा बढ़ती रहती है। क्योंकि धर्म सिर्फ तार्किक बातों पर नहीं , विश्वास के बल पर अपना अस्तित्व बना कर चलता है। जैसे की किसी भी शरीर में धड़कन बंद हो जाने पर उसे मृत मान लिया जाता है जबकी धार्मिक रूप में माना जाए तो आत्मा के रूप में एक जीव अजर अमर है। विज्ञान और धर्म का संशय तब टकराता है जब एक परम शक्ति के विषय में दोनों अपने अपने मत से उसे स्वीकार करते हैं। धर्म उस शक्ति को परमात्मा के रूप में मानता हैं। जबकि विज्ञान उसे एक निराकार प्रचालित ऊर्जा के रूप में स्वीकार करता है जो हर किसी के रग-रग में लहू बन कर दौड़ रहा हैं। विज्ञान की शक्ति के बारे में शोध ही किसी दूसरे व्यक्ति को नास्तिक और आस्तिक बनाने के लिए प्रेरित करती है।
विज्ञान का मानना है की जीवन का संपूर्ण सम्बन्ध धड़कन से है और धड़कन न रहने पर जीवन समाप्त। पर इसे दूसरे नजरिये से देखें तो ये सोचें कि कोख में एक भ्रूण पहले ही दिन से पनपने के लिए माँ की गर्भ नाल से अपने जीवन के लिए वायु लेने लगता है। उसे तो अप्रत्यक्ष रूप से श्वास मिल रही है इस के लिए उसे अपने अंगों की कोई आवश्यकता नहीं। तो क्या इसे विज्ञान कहेंगे ? क्या विज्ञान इस के लिए कोई तर्क देगा कि बिना कोई अंग बने एक भ्रूण कैसे श्वास ले कर बढ़ता और पनपता है। ये सब धर्म और परम शक्ति की पराकाष्ठा है जो हमारे जीवन के अंतःकरण से जुडी है। विज्ञान ने कई शोध करके ये जानने की कोशिश की कि आखिर आत्मा है क्या ? ......... परंतु यही पर आ कर उसकी सीमायें ख़त्म हो जातीं है क्योंकि यहाँ से धर्म का विश्वास शुरू होता है जो सीधे परमात्मा से जाकर जुड़ता है। इस लिए अगर विश्वास है तो परमात्मा से वह रिश्ता बनायें जो कि एक गर्भस्थ शिशु का अपनी माँ के साथ होता है। तब सही मायने में हम विज्ञानं और धर्म दोनो को साथ ले कर आगे बढ़ सकेंगे। .
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