क्रोध ........अवस्था या व्यवस्था ! 
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हमारे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अव्यव है क्रोध। जो कि हमें सब से ज्यादा प्रिय भी है और जिस के बिना हम  नहीं रहना चाहते। पढ़ कर अच्छा नहीं लगा पर मुझे यह लिखना पड़ा क्योंकि आज तमाम जिंदगियों में एक यही ऐसा तत्व है जो जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं में बदल चूका है। संयम की कमी और अपनी अपनी न हो पाने का कष्ट को क्रोध में बदल कर हम दूसरे को अपनी ज्वाला में भस्म करने की इच्छा रखने लगतें है। आज इधर उधर नजर घूमा कर देखिये तो छोटे छोटे बच्चे जिनका खेल ही जीवन है वह भी क्षणिक आवेश में अतिक्रोधी बन कर अपने मित्रों साथियों को मार डालने की ख्वाहिश रखने लगते हैं। ये सही है क्या .......? 
              क्या ये सत्य नहीं कि ये क्रोध हमें हमारी ही आने वाली खुशियों से महरूम कर रहा है। आगे का जीवन अवशम्भावी बना रहा है। बचपन से ही व्यव्हार का संतुलन न संभल पाने के कारण ये क्रोध बढ़ता ही जाता है और जीवन भर हमें दीमक की तरह चाटता रहता है। क्रोध एक ऐसी मानसिक अवस्था है जिस में हमारी सोच को सिर्फ नकारात्मक पहलु में जीना अच्छा लगने लगता हैं।अर्थात एक ऐसी अवस्था जब कोई भी अच्छी से अच्छी  बात या घटना हमें खुश करने के बजाये व्यथित करने लगती है  क्योंकि वह हमारे नजरिये से हमारे लिए उपयुक्त नहीं है और दूसरों के उपयुक्त परिस्थिति या घटना हमें स्वीकार नहीं होती।सही मायने में यही पर सच्चे बदलाव की जरूरत है।जो इस क्रोध को कम कर सकें। 

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