चलो बदलें ,कुछ ठोस और सार्थक करें …………!
अभी हाल ही में एक समाचार पढ़ने को मिला जिस से इंसानियत पर से विश्वास उठ ही गया है। और ये अहसास हो गया की व्यक्ति अपनी घृणित मानसिकता नहीं त्याग सकता जब तक की उस के स्वयं के साथ कुछ ऐसा न हो। क्या हो गया है आज समाज में कि बच्चों को बच्चों की नजर से नहीं देखा जाता। उनकी उम्र और मासूमियत को अनदेखा कर उन्हें अपने फायदे और संतुष्टि का सामान समझा जाता हैं। आज बड़े शहरों के नामी गिरामी विद्यालयों में भी इस तरह की घटनाओं का पता चले ये बेहद शर्म की बात हैं। घटना बैंगलोर के एक नामी विद्यालय की तीन वर्षीया छात्र बच्ची से बलात्कार की है जिसे विद्यालय परिसर में ही अंजाम दिया गया। जरा पहले ये सोचिये की तीन वर्षीया बच्ची …………क्या उसका शरीर इस लायक है या वह जानती है की उसके साथ क्या हो रहा है , या जिस किसी ने भी ये कार्य अपनी घृणित संतुष्टि के लिए किया उसे वह मिल पाया ? ईश्वर ने शरीर का विकास करते समय हर stage की एक उम्र तय की है। और उस उम्र में आने के बाद ही सही मायनों में जीवन का आनद उठा पाना संभव होता है। तभी विवाह की उम्र 21 वर्ष और 18 वर्ष रखी गयी हैं। तब शरीर से ही नहीं मन से भी किसी जिम्मेदारी को उठा सकने में समर्थ बना जाता हैं। क्या एक बच्चे की मासूमीयत में भी किसी को वासना का प्रभाव नजर आ सकता हैं ये सोचने का विषय हैं ? ईश्वर ने स्त्री पुरुष के रिश्ते को निभाने के लिए भी इस समाज के द्वारा कई नियम और प्रावधान बनवाए हैं जिस में समय और विकास की महत्वपूर्ण भूमिका है। फिर क्यों इस गन्दी सोच का खमियाजा बच्चियां भुगत रही हैं ? बदलिये कृपया बदलिये ..............अपने बच्चों को बचाने के लिए अपने आने वाली पीढ़ी की सोच बदलिये और उन्हें इस गन्दगी से दूर रखने के लिए अच्छा माहौल दीजिये और साथ ही साथ हर कार्य समय पर करने और निभाने की आदत डालिये। जिस से वह समय की कीमत समझ कर पहले से कुछ अनैतिक न करने लग जाएँ।
अब दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा ये क्या विद्यालय वाकई सुरक्षित हैं ? क्या वहां आने वाला हर पुरुष बच्चो को छोटा ही समझता हैं या उसकी नजर में भी वह उनकी इच्छापूर्ति का सामान भर है जिसे शौचालय मे, खाली कक्षाओं में ,खाली बस में , या विद्यालय के किसी भी खाली स्थान पर प्रयोग किया जा सकता हैं क्योंकि वँहा उनकी सुरक्षा के लिए उनके माँ बाप तो हैं नहीं। और ये भी एक विडम्बना है की जब इस तरह का कोई मामला सामने आएगा तब विद्यालय अपनी साख बचाने के लिए मामले को रफा दफा करने का प्रयास करेगा। उस समय उस विद्यालय के सामने अपने कम होते दाखिले ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाते है बजाये की उस पीड़ित को इंसाफ। छी: है ऐसे मानसिकता पर। न जाने क्यों प्यार में अंधे माता पिता ऐसे संतानों को घर में रहने देते है जो ऐसे घृणित कार्य करते हैं उस माता पिता को ही ऐसी संतान को गोली मार देनी चाहिए कम से कम जीवन भर इस गर्व के साथ तो जी सकेंगे की गलत का साथ नहीं दिया। कानून की लंबी प्रक्रिया तो उन्हें उनके सही मुकाम तक पहुँचाने में ही सालों निकाल देती है।
मैंने काफी समय पूर्व एक मूवी देखी थी। ............. जख्मी औरत ,जिसमें डिंपल कपाडिया ने एक पुलिस अफसर का रोल निभाया था और इसके बावजूद वह बलात्कार का शिकार हो जाती हैं। शायद आप में से भी कुछ ने देखी होगी। एक अच्छी और प्रेरणादायक फिल्म थी। उस फिल्म में न्याय करने का तरीका बड़ा ही अनोखा चुना गया था और न जाने क्यों मुझे वह तरीका बड़ा ही सही लगा। क्योंकि कोई न तो अपनी गलती मानता है और न ही पश्चाताप के लिए कुछ करता है। कानून के भी भरोसे भी कब तक बैठा जाए। और खास कर जब छोटे बच्चों का मामला हो तो ऐसा ही किया जाना चाहिए। इस से वह पुरुष एक ऐसे भँवर में फस जाएगा जिस में से न तो वह खुद निकल पायेगा न ही उसका परिवार उसे निकल पायेगा। और सबसे बड़ी बात की जिस के भरोसे उसने ये कुत्सित कार्य किया वह मामला ही ख़त्म। सही बिलकुल सही………लेकिन एक बार इस तरीके को कानून को मंजूरी देनी होगी। ये जान कर की नियत और फितरत हमेशा जोर मार सकती है।और शिकार कोई मासूम भी हो सकता है। ..........
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