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पागलपन और आधुनिकता की दौड़ में घिसटती संस्कृती …!
इसे पागलपन नहीं तो और क्या कहेंगे की खुद को चर्चा में रखने और कुछ नया करने की फ़िराक में कुछ भी करते जाओ जो चाये उचित हो या न हो या फिर समाज द्वारा स्वीकृत हो या अस्वीकृत। युवा वर्ग की सोच अलग हट के है पर इसे अलग बनाने के लिए कुछ अलग करना जरूरी है न की अनुचित को उचित बनाना। जो भी अलग करने की चाह हो पहले उसके सारे पहलुओं पर गौर करके उसे समाज के अनुरूप ढालने की कोशिश की जाए तभी वह स्वीकार्य हो पायेगा। नैतिकता किसी की जागीर नहीं ये मन में उपजने वाली एक भावना है और इसे हम सभी को दिल से महसूस करके अपनाना चाहिए।
कोच्चि के कुछ आई.आइ. टी छात्रों ने एक KISS FEST का आयोजन किया। मकसद था प्रेम और सौहार्द बढ़ाना। फेसबुक के एक ग्रुप free thinkers ने इस में सभी छात्रो को सम्मिलित होने का न्यौता दिया।परन्तु इस पूरे मामले की शुरूआत की वजह थी , हिन्दू संगठन के द्वारा की गयी तोड़ फोड़। जिन्होंने एक रेस्टोरेंट में बैठे कुछ छात्र छत्राओं को महज इस लिए जलील किया की उन्हें उनके प्रेमी प्रेमिका होने का शक था और वह उनके इस तरह खुले आम मिलने जुलने को रोकना चाह रहे थे। ये राजनितिक लोग अपनी रोटियां सेकने के लिए कोई भी माध्यम चुनने से नहीं कतराते भले ही उससे किसी की भी निजता आहत हो रही हों। दो संगठनों की लड़ाई में जो सबसे ज्यादा आहात हुई है वह है हमारी संस्कृति। जिस के लिए निजता एक पवित्र भाव है। हर रिश्ते में एक अलग space रखना जिस से कोई उसमे दखल न दे यही हमारी संस्कृति की खासियत हैं। यह दोनों ही संगठनों की गलती है जिसे उन्हें स्वीकार करना चाहिए। किसी भी राजनितिक सगठन को ये अधिकार नहीं है की वह सरे आम छात्र छात्राओं को जीने या व्यव्हार के तरीके सिखाये। क्योंकि वह खुद एक आम जनता हैं और आम हमेशा ही खास व्यव्हार करें ये जरूरी तो नहीं। और ये छात्र छात्राओं को भी सोचना चाहिए की इस तरह सार्वजनिक स्थानों पर एकत्र हो कर आयोजन करना या गुटबाजी करना उनके पढ़ने के माहौल के लिए अच्छा नहीं हैं। आज कल छात्र पढ़ते कम है और मस्ती में ज्यादा विश्वास रखते हैं। साथ के संगी साथियों के बीच रहकर उन्हें अपनी युवावस्था को जीने का पूरा मौका मिलने लगता है जिसे वह भरपूर जीना चाहते हैं। जो उम्र कुछ बनने के लिए प्रयास के लिए होती हैं वह इन चोंचलों में गुजरने लगती हैं। और अंततः परिणाम कभी भी उनके पक्ष में नहीं आता, नतीजा डिप्रेशन या आत्महत्या !
दूसरा सोचने का विषय यह है की क्या प्रेम प्रदर्शित करने के लिए एक दूसरे को चूमना या गले लगाना जरूरी हैं। प्रेम एक आतंरिक भावना है जिसे प्रदर्शित करना हो तो चेहरे के भाव ही काफी हैं। आँखों में प्यार दिखना , हरकतों से पसंदगी का अहसास होना , आस पास रहने की चाहत से पता चलना और किसी को भी उसकी अच्छाइयों और बुराइयों के साथ स्वीकार करना ये सभी प्यार के ही तो लक्षण है। प्यार बिना बोले भी अभिव्यक्त किया जा सकता है। यदि आप वाकई किसी को प्यार करते है तो स्वतः ही उसकी परवाह करने लग जाएंगे। उसके अच्छे बुरे के बारे में सोचने लग जाएंगे। उसकी तकलीफों में शामिल होने में ख़ुशी महसूस करेंगे। ये प्यार है न की सरे आम किसी को चूमना या गले लगाना। प्यार मन से होता है तन से नहीं। जो भी सम्बब्ध तन पर टीके होते है वह पूर्णकालिक (long lasting) नहीं होते। एक माँ और बच्चा यदि कही सार्वजानिक स्थान पर एक दूसरे को चूम रहें हो तो आप को कैसा लगेगा ? यकीनन देख कर बहुत ख़ुशी होगी। पर क्या ये सभी रिश्तों में मान्य हैं ? क्या एक पति पत्नी ऐसा कर सकते हैं ? क्या एक पुरुष मित्र और महिला मित्र ऐसा कर सकते हैं ? नहीं। … क्योंकि हर रिश्ते की एक मर्यादा सीमा निर्धारित की गयी है जिस की परिधि ही हमारी संस्कृति हैं। ये बात युवाओं को कौन समझाए कि उन्होंने तो अपने लिए खुद ही अपनी guide line तैयार कर ली है जिसे वह अपने तरीके से follow करना चाहते हैं। और फिर नैतिकता की सही परिभाषा क्या है ये युवा नहीं निर्धारित कर सकते। ये समाज में रहते रहते धीरे धीरे अपने आप समझ मे अाने लगती हैं। इस के लिए कुछ अलग से करने की जरूरत नहीं हैं। ये सब गलत है और जो समय जिस कार्य के लिए निर्धारीत किया गया है पहले उस पर ध्यान दिया जाना चाहिए। तभी सही परिणाम मिलेंगे और जीवन सार्थक बन जाएगा।
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